अजनबी !
जब तुम
अजनबी थे
तब -
तुम्हारी
एक-एक बात में
कितना
अपनापन था !
सहमे-सहमे
संवाद...
टूटे-टूटे
वाक्य...
अटके-अटके
शब्द...
असहज हो कर
भी
कितने सहज
थे !
वो
बिंदु-बिंदु से बनी रेख...
वो शब्दों
के मध्य का
रिक्त स्थान
!
वो अल्प और
पूर्ण विराम !
कितने सरल,कितने निर्मल
और कितने
मुखर थे !!
और अब -
जब तुम
अजनबी नहीं हो
तब -
तुम्हारे
मोतियों जैसे शब्द,
तुम्हारी
गठी हुई भाषा,
तुम्हारा
साधा हुआ लहजा
अच्छा है,बहुत अच्छा !
लेकिन -
मेरा वो
"अपनापन" कहाँ है ?
कहाँ है -
वो सहजता ?
वो सरलता ?
वो निर्मलता
?
सुनो !
तुम तब
अजनबी थे
या अब ?
छोड़ो जाने
दो ..
क्या फ़र्क़
पड़ता है
अजनबी तो
अजनबी ठहरा
फिर क्या
"तब"
और
क्या
"अब" !!!
17.6.2015
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