दाढ़ी और टोपी ,टीका और चोटी
देख कर -----
मुझमें छुपी नन्ही-सी बच्ची
डर जाती है !
और मेरा वयस्क मन --
कसैला हो जाता है !
'अज़ान' और 'आरती' की आवाजें
बम-विस्फ़ोटों और गोलियों की धाँय-धाँय से
लिपट कर ,कुछ ऐसे गरजती हैं
जैसे चन्दन से लिपटा विषैला नाग
फन उठाए फुफकार रहा हो !!
बचपन में माँ अक्सर कहतीं थीं -
"बिटिया! सदा धर्म का पालन करना,
अपना धर्म कभी मत छोड़ना"
तब समझ ही नहीं पाती थी
कि वास्तव में ये "धर्म" है क्या ?
आज भी नहीं समझ पाई हूँ !
हाँ इतना ज़रूर जान गई हूँ
कि "अधर्म"के जन्म का आधार है
"धर्म"!!!!
तुम्हारा -मेरा ,इसका-उसका
हम सबका "धर्म"!!
"धर्म" से "अधर्म" तक की यात्रा तो हो चुकी
आओ !अब एक नई शुरुआत करें
"अधर्म" के माध्यम से ---
'धर्म" के सही अर्थ को ग्रहण करें
और ज़ख़्मी इंसानियत के
रिसते हुए घावों पर
स्नेह का फाहा धरें !!!
दीप्ति मिश्र