वो किसी और की पत्नी थी !
उस पर मोहित हो गया कोई और !
उस पर मोहित हो गया कोई और !
इस दूसरे ने ---
उसे पाने के लिए "छल" किया
और पहले ने
क्रोधित हो शाप दिया !!
क्रोधित हो शाप दिया !!
सदमा इतना गहरा था कि--
सन्न ! अवाक ! स्पन्दनहीन !
नारी-देंह "पत्थर" हो गई !!
मौसम बीते ,फिर सहसा --
एक तीसरे के स्पर्श ने ,
पत्थर में" प्राण" फूँक दिए !
वो पत्थर जो अब स्त्री है ,
वो पत्थर जो अब स्त्री है ,
बैठे -बैठे सोच रही है --
एक ने छला !
एक ने शाप दिया !
और
एक ने जीवनदान !
इन तीन चरित्रों को
एक सूत्र में बाँधने वाली
इन तीन चरित्रों को
एक सूत्र में बाँधने वाली
अपनी इस कहानी में
"मैं" कहाँ हूँ ??
ये तो --------
तीन पुरुषों की इच्छा- पूर्ति के
"माध्यम" की कहानी है !!
इसमें " मैं" कहाँ हूँ ???
क्या पुरुष की "इच्छा" ही --
स्त्री की "नियति" है ???
नहीं ! ये मेरी कहानी
नहीं हो सकती !!!
वो उठी ----
उसने "अहिल्या " नाम का
चोला उतारा --
और चल पड़ी -----
अपने "अस्तित्व " की
तलाश में !!!!!
दीप्ति मिश्र