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Tuesday 4 February 2014

निर्भया

                                     निर्भया 

दामिनी चली गई और छोड़ गई अपने पीछे एक सवाल ....आखिर हम हैं क्या?...कौन हैं?...क्यों हैं?
स्त्री या पुरुष होना पाप नहीं है,पाप है इन्सानियत का मर जाना. दामिनी के साथ जो कुछ भी हुआ उसने पूरे हिंदुस्तान को हिला कर रख दिया और एका-एक सभी नींद से जग पड़े,कोई आँख मलते हुए तो कोई उबासी लेते हुए सुर में सुर मिलाने लगा दामिनी को इन्साफ़ दो.
कैसा इन्साफ़?
अगर दामिनी आज जीवित होती तो इन्साफ़ के नाम पर क्या मिल जाता उसे? गुनहगारों को चाहे जो भी सज़ा मिले क्या दामिनी की सहजता-सरलता और मासूमियत लौट पाती कभी?
सवाल ये नहीं है कि गुनहगारों को सज़ा क्या मिले? सवाल ये है कि इस तरह के वहशी दरिन्दे हैं ही क्यों? ये पैदा कहाँ हुए? ये पनपे कहाँ? इस ज़हरीले पौधे को पनपने के लिए खाद-पानी-मिट्टी कहाँ से मिले ? इस पौधे को हम सब नें मिलजुल कर पाला-पोसा है. इसकी देख-भाल कर के नहीं बल्कि इसकी अनदेखी कर के. अगर बीज को प्रस्फुटित होते ही कुचल दिया जाता तो आज ये नौबत नहीं आती. कहने का तात्पर्य ये है कि जिस वक्त वहशत,गुनह,बर्बरता पनप रही होती है उस वक्त हम जान कर भी अनजान बने रहते हैं क्योंकि इसका सीधा ताल्लुक हमसे नहीं होता. अपने आस-पास के माहौल से बेखबर आँखें बंद किए हम इस उम्मीद में जीते रहते हैं कि सब ठीक है.....सब ठीक हो जाएगा...! जब एका-एक कोई अनहोनी घट जाती है तो चौंक कर उठते हैं,भौचक हो कर इधर-उधर ताकते हैं और जब इस बात का डर का सताने लगता है कि कहीं “हमारे अपने” के साथ ऐसी दुर्घटना न घट जाए तो खिसिया कर तडा-तड़ इल्ज़ामों कि झड़ी लगा देते हैं
क्या कर रही है पुलिस? क्या कर रहा है समाज? क्या कर रहा है देश? अपनें दिल पर हाथ रख कर एक बार भी नहीं पूछते कि हम क्या कर रहे हैं? क्यों नहीं झकझोरते अपनाप को? क्यों नहीं पूछते अपनेआप से कि हमारी संवेदनशीलता कहाँ मर गई? क्यों आस-पास हो रहे ज़ुल्मो-सितम से हमारा कोई सरोकार नहीं है? क्यों सब कुछ देख-सुन कर भी हमारा खून नहीं खौलता और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं?
सच-सच बताइये कितनी ही बार आपने लड़कियों को बद्तमीजी या अभद्रता का शिकार होते हुए देखा होगा,क्या एक बार भी रोकने या टोकने की कोशिश की? या चुप-चाप पल्ला झाड़ के निकल लिए कि “भाई कौन पड़े इस वबाल में”. या ये सोच के चल दिए कि “छोड़ो भी कुछ देर में सब ठीक हो जाएगा”. या ये सोच कर निकल लिए कि “दूसरे के मामले में हम क्यों टांग अड़ाए”? या ये सोच कर चले आए कि “ये सब तो रोज़मर्रा की घटनाएँ हैं कहाँ तक कोई अपना टाइम वेस्ट करे”. यही वजह है कि दिन-पर-दिन इन वहशी दरिन्दों का हिम्मत बढ़ती चली जा रही है और ये निरंकुश होते जा रहे हैं. इन्हें किसी का भय नहीं है क्योंकि ये जान गए हैं कि शराफ़त और बुझदिली में कोई खास फ़र्क नहीं है. अगर शुरुआत में हीं इन्हें हम “आम-आदमियों” द्वारा रोका-टोंका या दण्डित किया जाता तो निश्चित रूप से इनका दुस्साहस इतना नहीं बढता. सभी इल्मी और फ़िल्मी मित्रों से निवेदन है कभी उन ख़बरों का भी हिस्सा बनें जिनका ज़िक्र अख़बारों या टीवी पर नहीं होता. अगर समाज की एक इकाई “मैं” अपनी ज़िम्मेदारी से मुहँ न मोड़े और “हम” में शामिल हो जाए तो निश्चित रूप से सुधार की संभावना बनती है.
बचपन से लेकर आज तक,एक नहीं अनेक बार ....
अपने से लेकर पराए तक ,छोटे से लेकर बड़े तक ,घर से ले कर बाहर तक,मेरा और इस दरिन्दे का आमना-सामना हुआ है लेकिन कुछ संस्कार थे,कुछ हिम्मत थी,कुछ आत्मविश्वास था और कुछ थी ऊपर वाले की कृपा,कि हर बार मैं जीती और दरिन्दा हार गया. ये जीत मेरी नहीं थी ये जीत थी मेरे संस्कारों की,मेरी हिम्मत और हौसले की,मेरे आत्मविश्वास की जो मुझे मेरे अपनों और आस-पास के वातावरण से मिला. ये जीत उन सभी अपने-परायों की थी जिन्होनें उस वक्त मेरा साथ दिया. 
लड़कियों से मुझे यही कहना है कि रोने-धोने ,गिडगिडाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला, अगर आप खुद अपने लिए आवाज़ नहीं उठाएगीं तो कोई भी आपका साथ नहीं देगा. अपनें साथ कुछ भी गलत न होने दें ....जानती हूँ कि ये आपके बस में नहीं है मगर अगर कुछ गलत होता है तो उसका विरोध ज़रूर करें. ज़रूरत है हिम्मत,हौसले और आत्मविश्वास की. ज़रूरत है उस सोच को बदलने की जिसने आपको कमज़ोर और लाचार बना दिया है. उसी वक्त उस दरिन्दे को मुँह तोड़ जवाब दें भले ही वो आपका चाचा-ताऊ ही क्यों न हो. मत सोचिये कि लोग क्या कहेंगे,जिन्हें कहना है वो हर हाल में कुछ न कुछ कहेंगे. आप बस ये सोचिये कि जुर्म करने वाले से ज्यादा बड़ा दोषी जुर्म सहने वाला होता है. आपको समाज में शान से जीने का हक है आगे बढ़िए और गर्व के साथ अपना हक लीजिए. हर माता-पिता से विनम्र निवेदन है कि वो बच्चों को ऐसे संस्कार दें कि वो बड़े होकर स्त्री और पुरुष के सम्बन्ध को सम्मान दे सकें.

आज दामिनी के लिए जिस किसी माध्यम से जो कुछ भी किया जा रहा है उससे मेरा कोई विरोध नहीं है लेकिन उसके साथ जो कुछ भी हुआ उस सब के पीछे कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैं,आप मानें या न मानें मैं मानती हूँ और सिर्फ इतना कहना चाहती हूँ कि अपनी प्रतिक्रिया के लिए बड़ी दुर्घटनाओं का इंतज़ार न करें आस-पास जहां भी कुछ गलत होते देखें ...तो  रोकें ,टोकें और एक जिम्मेदार  नागरिक होने का फ़र्ज़ अदा करें.. ये भी बता दूँ कि जब भी आप ऐसा कुछ करने के लिए बढेंगें इस तथाकथित सभ्य समाज के लोग आप को ज्ञान देंगें ये क्या बेवकूफी करने जा रहे हो...?पागल हो गए हो क्या...? मगर उनकी एक मत सुनिये ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है आप आगे बढेंगें तो भले ही सौ लोग चुप-चाप तमाशा देखते रहें मगर एक ज़रूर होगा जिसका ज़मीर मरा नहीं होगा वो आपका साथ देगा....फिर दो.....फिर तीन.......फिर चार............!!

Tuesday 7 August 2012

परिचय - सच को मैंने सच कहा


सच को मैंने सच कहा ,जब कह दिया तो कह दिया
अब   ज़माने   की   नज़र   में   ये   हिमाकत   है तो है

एक शख्सियत ....  दीप्ति मिश्र
 शाइरी के हाल और माज़ी के पन्ने अगर पलट के देखें तो एक बात साफ़ है कि मरदाना फितरत ने  अदबी लिहाज़ से शायरात की ग़ज़ल में हाज़िरी को बा-मुश्किल माना है  हालांकि  कुछ ऐसी शायरात है जिन्होंने अपने   शानदार  क़लाम   से इस  मरदाना फितरत को मजबूर किया है कि वे अदब में   इनकी  मौजूदगी  का एहतराम करें  ! आज के दौर में कुछ ड्रामेबाज़ शाइरों और दूसरो से  ग़ज़ल कहलवा कर लाने वाली कुछ शायरात ने अदब कि आबरू को ख़तरे  में डाल दिया है !जिन शायरात ने अपने होने का एहसास करवाया है उनकी तादाद शायद एक आदमी के हाथ में जितनी उंगलियाँ होती है उनसे   ज़ियादा नहीं है ! अदब में बे- अदब होते अदीबों की गुटबाजी,बड़े - बड़े शाइरों  के  अलग अलग धड़े  ,ग़ज़ल को ऐसे माहौल में सांस लेना मुश्किल हो गया है ऐसे में एक नाम दूसरों  से अलग नज़र आता है वो नाम है शाइरा "दीप्ति मिश्र" ! पहली मरतबा 1997  में  दिल्ली में एक  कवि - सम्मलेन में उन्हें सुनने का अवसर मिला !  दीप्ति मिश्र को दावते - सुखन दिया गया  ,बिना किसी बनावट के अपने चेहरे जैसी मासूमियत से उन्होंने ग़ज़ल पढ़ी  ,ग़ज़ल का लहजा बिल्कुल अलग ,बहर ऐसी की जो कभी पहले न सुनी  , रदीफ़ ऐसा जिसे निभाना वाकई मुश्किल ही नहीं बेहद मुश्किल  मगर दीप्ति मिश्र अपने अलेदा से अंदाज़ में अपनी ग़ज़ल पढ़कर बैठ गई  और सामईन के दिल में छोड़ गई  अपने लहजे और कहन की गहरी छाप ! उनकी उस ग़ज़ल का  रदीफ़ "है तो है"  इतना मशहूर हुआ की आज वो दीप्ति मिश्र का दूसरा नाम बन गया है ! ग़ज़ल के बड़े बड़े समीक्षक ,आलोचक इस ग़ज़ल को सुनने के बाद  ये लिखने पे विवश हुए की दीप्ति मिश्र के रूप में ग़ज़ल को एक नया लहजा मिल गया है ,दीप्ति की दीप्ति अब मधम होने वाली नहीं है !जिस ग़ज़ल ने दीप्ति मिश्र को अदब की दुनिया में एक पहचान दी उसके चंद अशआर मुलाहिजा फरमाएं :---
वो नहीं मेरा मगर उस से मुहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों -रिवाजो से बगावत है तो है
जल गया परवाना ग़र तो क्या ख़ता है शम्मा की
रात भर जलना-जलाना उसकी क़िस्मत है तो है
दोस्त बनकर दुश्मनों सा वो सताता है मुझे
फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फितरत है तो है
इस ग़ज़ल ने दीप्ति मिश्र को शाइरी के समन्दर में ऐसी कश्ती बना दिया जिसने फिर न तो कभी किसी  किनारे की तमन्ना की न ही  किसी   तूफ़ान से वो खौफ़ज़दा  रही !
उतर प्रदेश के एक छोटे से कस्बेनुमा शहर लखीमपुर - खीरी में  दीप्ति मिश्र का जन्म श्री विष्णु स्वरुप पाण्डेय   के यहाँ 15 नवम्बर 1960 को हुआ !इनके वालिद मुनिसपल बोर्ड में अधिकारी थे सो जहाँ जहाँ उनकी मुलाज़मत रही वहीं वहीं दीप्ति जी की शुरूआती तालीम हुई ! गोरखपुर से हाई स्कूल करने के बाद दीप्ति जी ने बी.ए बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी  से किया  !बचपन से ही   इन्हें लिखने और अभिनय का शौक़ था  और ये परवान चढ़ा ईल्म- ओ- तहज़ीब के शहर बनारस में ! दिसम्बर 1982   में दीप्ति जी उस बंधन में बंधी  जिसकी डोर में बंधना हर लड़की का सपना होता है, दीप्ति पाण्डेय अब दीप्ति मिश्र हो गई और वे फिर अपने शौहर के साथ ग़ाज़ियाबाद आ गई !तालीम से उनका राब्ता ख़त्म ना हुआ ग़ाज़ियाबाद में इन्होने मेरठ यूनवर्सिटी से एम्.ए किया और इसी दरमियान गीत और ग़ज़ल के बहुत बड़े स्तम्भ डॉ. कुंवर बैचैन से दीप्ति जी की मुलाक़ात हुई !दीप्ति जी पहले आज़ाद नज़्में लिखती थी इनकी नज़्में पढ़कर किसी ने कहा कि इन नज्मों में परवीन शाकिर कि खुश्बू आती है !अपने जज़बात  ,अपनी अभिवयक्ति को बहर और छंद कि बंदिश में लिखना दीप्ति जी को शुरू में ग़वारा नहीं हुआ  पर कुंवर बैचैन साहेब कि रहनुमाई ने ग़ज़ल से दीप्ति मिश्र का त-आर्रुफ़  करवाया !हर शाइर /शाइरा कि ज़िन्दगी में ये वक़्त आता है कि वो जो भी कहे सब बहर में आ जाता है, दीप्ति मिश्र अब ग़ज़ल कि राह पे  चल पड़ी  थी ये नब्बे के दशक के शुरूआती साल थे !
1997 में दीप्ति मिश्र का पहला मजमुआ ए क़लाम "बर्फ़ में पलती हुई आग " मंज़रे आम पे आया ,इस किताब का विमोचन साहित्यकार और उस वक़्त के कादम्बिनी के सम्पादक  राजेन्द्र  अवस्थी जी ने किया ! इससे पहले  अक्टूबर 1995 में  एक दिलचस्प बात ये हुई की दीप्ति जी ने अपनी एक ग़ज़ल कादम्बिनी में छपने के लिए भेजी ,वो ग़ज़ल ये कहकर लौटा दी गई कि  रचना कादम्बिनी के मेयार की नहीं है और फिर वही ग़ज़ल उनसे विशेष आग्रह कर कादम्बिनी के लिए मांगी गई !  उस ग़ज़ल का ये शे'र बाद में बड़ा मशहूर हुआ :-
उम्र के उस मोड़ पर हमको मिली आज़ादियाँ
कट चुके थे पंख जब ,उड़ने का फन जाता रहा
इसके बाद दीप्ति जी को कवि सम्मेंलनों के निमंत्रण आने लगे मगर कवि-सम्मलेन के मंचों पे होने वाले ड्रामे, कवियत्रियों के साथ बर्ताव नामचीन कवियों कि गुटबाजी ये सब देख उन्होंने मंच पे जाना छोड़ दिया !रायपुर के अपने पहले  मुशायरे में दीप्ति जी के क़लाम पे जो सच्ची दाद उन्हें मिली उसकी मुहब्बतों ने उन्हें कवियत्री से शाइरा बना दिया !
वक़्त के साथ - साथ दीप्ति मिश्र शाइरी की एक ख़ूबसूरत तस्वीर हो गई जिसकी शाइरी में मुहब्बत के रंगों  के साथ औरत के वजूद कि संजीदा फ़िक्र भी थी ! ग़ज़ल कि इस  नायाब तस्वीर बनाने में एक मुसव्विर  के ब्रश का भी कमाल  शामिल था वो थे मारुफ़ शाइर मंगल नसीम साहब !
दीप्ति मिश्र की शाइरी   में बेबाकी,  सच्चाई और साफगोई   मिसरी की डली की तरह घुली रहती है ,सच हमेशा कड़वा होता है पर दीप्ति जी  अपने कहन की माला में सच के फूलों  को इस तरह पिरोती है कि उस माला से सिर्फ़  मेयारी शाइरी  की खुश्बू आती है :--
उनसे कोई उम्मीद करें भी तो क्या भला
जिनसे किसी तरह की शिकायत नहीं रही
दिल रख दिया है ताक पर हमने संभाल कर
लो अब  किसी तरह की भी दिक्क़त नहीं रही
***
दुखती रग पर उंगली रखकर पूछ रहे हो कैसी हो
तुमसे ये उम्मीद नहीं थी ,दुनिया चाहे जैसी हो
दीप्ति मिश्र दूरदर्शन और आकाशवाणी से अधिकृत अदाकारा  थी सो अपने अभिनय के शौक़ के चलते 2001 में मुंबई आ गई पर शाइरी उनका पहला शौक़ ही नहीं जुनून भी  था !मुंबई के एक मुशायरे में उन्होंने अपनी ग़ज़ल पढ़ी तो एक साहब उनके ज़बरदस्त मुरीद हो गये ,मुशायरे के बाद उन्होंने अपना कार्ड उन्हें दिया और मिलने का आग्रह किया जब दीप्ति जी ने घर जाके वो कार्ड देखा तो वो राजश्री प्रोडक्शन के राजकुमार बड़जात्या का था ! राजकुमार बड़जात्या ने उन्हें  सिर्फ़ अपने प्रोडक्शन के लिए लिखने का आग्रह किया  पर दीप्ति जी के मन में जो परिंदा था उसने किसी क़फ़स में रहना गवारा नहीं समझा और बड़ी शालीनता से दीप्ति मिश्र ने उनका प्रस्ताव नामंजूर कर दिया हालांकि उनके चर्चित टी.वी सीरियल "वो रहने वाली महलों की " के सभी थीम गीत दीप्ति मिश्र ने लिखे !
दीप्ति मिश्र अपनी  शाइरी में  सिर्फ़ औरत होने का दर्द बयान नहीं करती बल्कि औरत - मर्द के रिश्तों की उलझी हुई कड़ियों को खूबसूरती से सुलझाती है और मर्दों से अपना मुकाबिला सिर्फ़ अपने औरत होने भर के एहसास के साथ करती है ! औरत - मर्द के रिश्तों की पड़ताल दीप्ति जी ने बड़ी बारीकी से की है और उसपे अपनी राय भी बे-बाकी से दी जो उनके शे'रों में साफ़ देखने को मिलता है !
दिल से अपनाया न उसने ,ग़ैर भी समझा नहीं
ये भी इक रिश्ता है जिसमें कोई भी रिश्ता नहीं
****
तुम्हे किसने कहा था ,तुम मुझे चाहो, बताओ तो
जो दम भरते हो चाहत का ,तो फिर उसको निभाओ तो
मेरी चाहत भी है तुमको और अपना घर भी प्यारा है
निपट लूंगी मैं हर ग़म से ,तुम अपना घर बचाओ तो
*****
जिससे तुमने ख़ुद को देखा ,हम वो एक नज़रिया थे
हम से  ही अब क़तरा हो तुम हम से  ही तुम दरिया थे
सारा का सारा खारापन   हमने   तुमसे    पाया है
तुमसे मिलने से पहले तो हम एक  मीठा दरिया थे
दीप्ति मिश्र का दूसरा मजमुआ ए क़लाम मंज़रे आम पे  2005  में   आया जिसका नाम वही उनकी ग़ज़ल का रदीफ़ जो दीप्ति का दूसरा नाम अदब की दुनिया में बन गया "है तो है " इसका इज़रा  (विमोचन)  पद्म-विभूषण श्री जसराज ने किया और इस लोकार्पण में पं.जसराज ने उनकी बेहद मकबूल ग़ज़ल का मतला (वो नहीं मेरा मगर उससे मुहब्बत है तो है )गाया भी ! 2008    में दीप्ति मिश्र का एक और मजमुआ उर्दू में आया "बात दिल की कह तो दें "
ख़ुदा की मेहरबानी दीप्ति साहिबा पे कुछ ज़ियादा ही हुई है वे शाइरा के साथ - साथ बेहतरीन अदाकारा भी है इन्होने बहुत से टेलीविजन धारावाहिकों में अभिनय किया है जिसमें प्रमुख है जहाँ पे बसेरा हो , कुंती, उर्मिला, क़दम, हक़ीक़त , कुमकुम, घर एक मंदिर और शगुन !बहुत से धारावाहिकों के थीम गीत भी दीप्ति जी ने लिखे है ! तनु वेड्स मनु , एक्सचेंज   ऑफर और साथी -कंधाती(भोजपुरी ) फिल्मों में भी दीप्ति मिश्र ने अपने अभिनय का लोहा मनवाया है !
आने वाली फ़िल्म "पत्थर बेज़ुबान " के तमाम गीत दीप्ति मिश्र ने लिखे है जिसमे कैलाश खैर ,रूप कुमार राठौड़ , श्रेया घोषाल ,और एक ठुमरी शोमा घोष ने गाई  है !दीप्ति मिश्र की गजलों का एक एल्बम "हसरतें "  भी आ चुका है जिसे  ग़ुलाम अली और कविता कृष्णा मूर्ति ने अपनी आवाज़ से सजाया है !
दीप्ति मिश्र की शाइरी का एक पहलू अध्यात्म भी है, ज़िन्दगी के फ़लसफ़े को भी उन्होंने मुख्तलिफ अंदाज़ से  शे'र बनाया है :---
बेहद बैचेनी है लेकिन मकसद ज़ाहिर कुछ भी नहीं
पाना-खोना ,हँसना-रोना ,क्या है आख़िर कुछ भी नहीं
*****
सब यही  समझे  नदी सागर  से मिलकर  थम  गई
पर नदी  तो वो सफ़र  है जो कभी  थमता  नहीं
दीप्ति मिश्र ने दो मिसरों में अपनी मुकम्मल बात कहने का दूसरा फन "दोहे " भी लिखे और  दोहों पे भी अपने कहन की मोहर लगाईं :--
रिश्तों के  बाज़ार में ,   चाहत   का   व्यापार !
तोल ,मोल कर बिक रहे, इश्क़ ,मुहब्बत ,प्यार !!
अपनी अपनी कल्पना ,अपना अपना ज्ञान !
जिसकी जैसी आस्था ,वैसा है भगवान् !!
बहुत सी अदबी तंजीमों ने दीप्ति मिश्र को एज़ाज़ से नवाज़ा मगर सबसे बड़ा उनके लिए इनआम उनकी नज्मों और उनकी गजलों के वो मुरीद है जो इनसे  अपने दिल पे लगे ज़ख्मों   के लिए  मरहम  का काम लेते है ! दीप्ति मिश्र ने  जीवन के ऐसे  पहलुओं को शाइरी बनाया है जिसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता !उनके शे'र अपना   ज़ाविया और  तेवर भी अलग रखते है ! दीप्ति मिश्र की शाइरी  रूह  और जिस्म  के फासले  को अपने ही  अन्दाज़ से परिभाषित करती है :--
 अपनी -अपनी क़िस्मत सबकी अपना-अपना हिस्सा है
जिस्म की ख़ातिर लाखों सामाँ ,रूह की ख़ातिर कुछ भी नहीं
******
जिस्म क्या चीज़ है ये जाँ क्या है
और दोनों के दरमियाँ क्या है
****
फ़क़त जिस्म ही जिस्म से मिल रहे हैं
ये कैसी जवानी ?ये कैसी जवानी ?
दीप्ति मिश्र नाम के शाइरी के  अनोखे तेवर पर अदब को फ़ख्र  है और अदब को उनसे  उम्मीदें भी बहुत है !आख़िर में दीप्ति जी के इन मिसरों  के साथ विदा लेता हूँ ..अगले हफ्ते फिर किसी शख्सियत से रु-बरु करवाने का वादा ...
बहुत फ़र्क़ है ,फिर भी है एक जैसी
हमारी कहानी ,तुम्हारी कहानी
तेरे पास ऐ ज़िन्दगी अपना क्या है
जो है सांस आनी ,वही सांस जानी

विजेंद्र शर्मा
vijendra.vijen@gmail.com