दुखती रग पर उंगली रख कर पूछ रहे हो कैसी हो
तुमसे ये उम्मीद नहीं थी , दुनिया चाहे जैसी हो
एक तरफ़ मैं बिल्कुल तन्हा एक तरफ़ दुनिया सारी
अब तो जंग छिड़ेगी खुलकर , ऐसी हो या वैसी हो
मुझको पार लगाने वाले जाओ तुम तो पार लगो
मैं तुमको भी ले डूबुगीं कश्ती चाहे जैसी हो
जलते रहना, चलते रहना तो उसकी मजबूरी है
सूरज नें ये कब चाहा था उसकी क़िस्मत ऐसी हो
ऊपरवाले ! अपनी जन्नत और किसी को दे देना
मैं अपनी दोज़ख़ में ख़ुश हूँ जन्नत चाहे जैसी हो
दीप्ति मिश्र