सलीब
संवेदना की सलीब पर ,
लटकी हुई 'मैं'
जाने कब से ...
अपने घाव धो-पोंछ रही हूँ !
लोग मेरे पास आते हैं
मुझे अनुभूत करते हैं
और
घोल देते हैं
अपनी सारी की सारी वेदना
मेरी संवेदना में !
फिर कहते हैं --
'मेरी हो जाओ'
उत्तर में 'नहीं' सुनकर
बौखला जाते हैं
और
शब्दों का हथौड़ा लेकर
'ठक्क' से ठोंक देते हैं
मेरे सीने में
दुःख की एक और 'कील'!
दुःख की एक और 'कील'!
मैं कुछ नहीं कहती
रिसने लगता है
लहू ...
लहू ...
उधर उनकी आँखों से
आँसू !!
दीप्ति मिश्र