अनछुआ स्पर्ष
एक औरत
जो बरसों से दफ़्न थी
मेरे भीतर !
आज ...
तुम्हारे अनछुए स्पर्ष के अहसास से
जी उठी है !!
जी लूँ कुछ देर मैं भी उसके संग !
भर लूँ आँचल में तुम्हारे सारे रंग !
देंह की देहरी को लांघ -
बह जाऊँ पागल पवन सी ...
तुम्हारी सुगन्ध में !
डूबूँ - उतराऊँ ...
तुम्हारी सॉंसों के आरोह - अवरोह में !
सपने चुनूँ...
सपने बुनूँ...
जब आँख खुल जाएगी
जाग जाऊँगी,जान जाऊँगी
सपनों की अवधि पूरी हो गई है !
मेरे भीतर की औरत फिर सो गई है !!
दीप्ति मिश्र
10.4.2016
8.8pm - 11.35pm
एक औरत
जो बरसों से दफ़्न थी
मेरे भीतर !
आज ...
तुम्हारे अनछुए स्पर्ष के अहसास से
जी उठी है !!
जी लूँ कुछ देर मैं भी उसके संग !
भर लूँ आँचल में तुम्हारे सारे रंग !
देंह की देहरी को लांघ -
बह जाऊँ पागल पवन सी ...
तुम्हारी सुगन्ध में !
डूबूँ - उतराऊँ ...
तुम्हारी सॉंसों के आरोह - अवरोह में !
सपने चुनूँ...
सपने बुनूँ...
जब आँख खुल जाएगी
जाग जाऊँगी,जान जाऊँगी
सपनों की अवधि पूरी हो गई है !
मेरे भीतर की औरत फिर सो गई है !!
दीप्ति मिश्र
10.4.2016
8.8pm - 11.35pm