Friday 2 May 2014

मैं और मेरा भगवान्

मैं और मेरा भगवान्

मेरे छोटे-से घर के
छोटे-से कमरे की
छोटी-सी अलमारी के
छोटे-से ख़ाने में
शिव जी की एक नन्ही-सी बटियाहै .
जिसके सामने रक्खे हैं-
एक छोटा-सा अगरबती स्टैंड और
रामचरित-मानसकी एक प्रतिलिपि
बस.
मेरे घर में भगवान के लिए मात्र इतनी ही जगह है.
क्यों कि मैं एक बड़े शहर में रहती हूँ जहाँ
घर छोटे,आदमी छोटे और दिल छोटे होते हैं.
मैं अपने भगवान पर गंगाजल नहीं चढ़ाती
इस लिए नहीं कि है नहीं
वरन इस लिए कि
मुझे उसकी शुद्धता पर विश्वास नहीं रहा.
मैं अपने भगवान् पर फूल भी नहीं चढ़ाती
क्योंकि -
अपने हाथों से लगाए पौधों के फूल तोड़ने में
मुझे दर्द होता है और
दूसरों से माँगने की मेरी आदत नहीं .
मैं अपने भगवान् को
न चन्दन लगाती हूँ, न रोली, न अक्षत .
रोली,चन्दन अक्षत तो है
किन्तु समय नहीं है.
मगर फिर भी
मेरा भगवान् मुझसे रुष्ट नहीं होता
क्योंकि वो भगवान् है.
मैं नित्य प्रातः
स्नान करके भगवान् के आगे अगरबत्ती जलाती हूँ
मूक स्वर में मानस का पाठ करती हूँ
और
आँख मूँद कर उससे वो सब कह जाती हूँ
जिसे स्वप्न में भी किसी से कहने से डरती हूँ
फिर चिंतामुक्त हो जाती हूँ !
कभी-कभी ऐसा भी होता है
मैं अपने भगवान् से रूठ जाती हूँ,
महीनों पूजन नहीं करती.
मेरे भगवान् पर धूल की परतें जम जाती हैं
लेकिन तब भी,
मेरा भगवान् मुझसे रुष्ट नहीं होता
क्योंकि वो भगवान् है

फिर
जब कभी मेरे दुखों की गगरी भर जाती है
तब मुझे अपने भगवान् की याद आती है
मैं रोती हूँ, गिडगिडाती हूँ
जो रूठा ही नहीं,
ऐसे भगवान् को मानती हूँ .
बस यूँ ही क्रम चलता रहता है
मेरा -

और मेरे भगवान् का .....!!

दीप्ति मिश्र 
21.3.86

यात्रा

यात्रा

एक था परमात्मा
एक थी आत्मा
और एक था शरीर.
आत्मा ने परमात्मा से पूछा
मैं कौन हूँ ?
उत्तर मिला
एक अप्रत्यक्ष, अनश्वर, अपूर्ण सत्य.
पूर्ण कब होऊँगी ?
जब मुझमें विलीन हो जोगी.
विलीन कब होऊँगी ?
जब यात्रा समाप्त हो जाएगी.

शरीर ने पूछा
मैं कौन हूँ ?
उत्तर मिला
एक प्रत्यक्ष, नश्वर, अपूर्ण सत्य.
पूर्ण कब होऊँगा ?
जब विदेह हो जाओगे.
विदेह कब होऊँगा ?
जब यात्रा समाप्त हो जाएगी .

शरीर और आत्मा ने एकसाथ पूछा-
यात्रा कब समाप्त होगी ?
उत्तर मिला
जब तुम दोनों एक-दूसरे का उद्धार करोगे.

एक ओर था
निष्प्राण, निर्विकार, नश्वर, अपूर्ण सत्य.
दूसरी ओर थी
निराकार, निरालम्ब, शाश्वत, अपूर्ण आत्मा.
दोनों ही पूर्ण होना चाहते थे.
आत्मा ने शरीर
और शरीर ने आत्मा को
स्वीकार लिया.
शरीर को प्राण
आत्मा को आकार
अभिव्यक्त हुए दोनों एक साथ.
अद्भुत, अतुलनीय था ये महामिलन !

आरम्भ हो गई यात्रा और
विकसित होने लगीं दोनों की वृत्तियाँ
एक उत्तर तो दूसरा दक्षिण
एक पूरब तो दूसरा पश्चिम
आत्मा शांत तो शरीर उद्विग्न
शरीर की अपनी आवश्यकता
आत्मा की अपनी माँग
शरीर की अपनी विवशता
आत्मा की अपनी दृढ़ता
नतीजा सामने था
टकराव-बिखराव-टूटन-द्वन्द.
धीरे-धीरे बलवान होता गया शरीर
और क्षीण होता गई आत्मा.
आत्मा ने बहुत सर पटका
लाख अनुनय-विनय की
किन्तु -                                                           
भोग-विलास,काम-वासना में लिप्त                                    
बलशाली शरीर ने एक न सुनी.
बहुत छटपटाई बहुत कसमसाई आत्मा
किन्तु दम नहीं तोड़ सकी
अनश्वर जो थी !
अब कोई विकल्प शेष न था
चुप-चाप निर्मोही बन
त्याग दिया आत्मा ने शरीर !
क्षण भर में
समाप्त हो गया सारा खेल !!
धराशाही पड़ा था बलशाली शरीर
निर्जीव-निर्विकार !

आत्मा ने परमात्मा से कहा
मेरी यात्रा समाप्त हुई ;
अब समाहित करो मुझे अपने आप में .
परमात्मा ने कहा
अभी कहाँ समाप्त हुई तुम्हारी यात्रा ?
तुमने तो यात्रा अधूरी ही छोड़ दी .
शरीर का उद्धार नहीं तिरस्कार किया है तुमने.
शरीर तो निर्विकार था
तुमने उसमें प्रवेश कर
विकार युक्त किया उसे
विकार का कारण तो स्वयं तुम हो
फिर शरीर का तिरस्कार क्यों ?
शरीर में रह कर ही
तुम्हें उसे निर्विकार बनाना था
यही तुम्हारी परीक्षा थी
और यही शरीर की .
तुम दोनों ही हार गए .
पूर्णत्व प्राप्त करने के लिए तुम्हें
फिर से धारण करना होगा
एक नया शरीर
और आरम्भ करनी होगी
एक नईं यात्रा .

तब से आज तक
जाने कितने शरीर धारण कर चुकी है आत्मा
निरन्तर,  अनवरत, सतत यात्रा किये जा रही है.
इस आस और विश्वास के साथ
एक न एक दिन वह
अपने शरीर को निर्विकार बना लेगी .

उधर
ऊपर बैठा परमात्मा
रहस्यमय ढ़ंग से मुस्कुरा रहा है
क्योंकि
उसने आज तक
एक भी शरीर ऐसा नहीं बनाया
जो आत्मा के होते हुए
निर्विकार हो !!

दीप्ति मिश्र
2.5 2002



Thursday 1 May 2014

प्यास

प्यास


सच है
प्यासी हूँ मैं
बेहद प्यासी
मगर तुमसे किसने कहा, कि
तुम मेरी प्यास बुझाओ ?
मुझसे कहीं ज़्यादा रीते,
कहीं ज़्यादा ख़ाली हो तुम .
और...
तुम्हें अहसास तक नहीं
कि -  
भरना चाहते हो तुम अपना खालीपन
मेरी प्यास बुझाने के नाम पर .
ताज्जुब है !
मुक्कमल बनाना चाहता है मुझे
एक-

आधा-अधूरा इन्सान !! 

दीप्ति मिश्र 
17.2.2004

गन्तव्य

गन्तव्य



शांत, शीत, श्वेत, सघन
शिखर पर स्थित थी वह .
निर्विकार ! निर्विचार !
जाने किसने उसे बता दिया
तुम्हारे जीवन का सार है – “सागर

शांत चित्त उद्वेलित हुआ
विचार और विकार की ऊष्मा पा
पिघलने लगी बर्फ़ की चट्टान.
जन्मी एक आस
उपजा एक विश्वास
ज्ञात हुआ एक लक्ष्य
सागर ! सागर ! सागर !
उसे सागर तक जाना था
सागर को पाना था
सागर हो जाना था .

बहुत रोका गया, टोका गया
बताया गया उसे कि
शिखर से धरा और
धरा से अतल गहराइयों तक
झुकते चले जाने की यात्रा
बहुत जटिल, बहुत दुरूह
और बहुत पीड़ादायक है.
किन्तु उसे तो
लौ लगी थी अपने सागरकी 
उसका लक्ष्य था सागर
उसका गन्तव्य था सागर
उसका सत्य था सागर
उसका सर्वस्व था सागर.

बस फिर क्या था
शक्ति, विश्वास और आस्था बटोर 
बह चली वह
हरहराती, मदमाती
लहराती, बलखाती
हरयाली बिखेरती,
प्यासों की प्यास बुझाती,
तप्तों का ताप मिटाती
बहती जाती निर्बाध गति से
नन्ही सी जालधार
सागर को पाने
बिना ये जाने
कि सागर कहाँ है ?

राह में मिला उसे जल-प्रपात
धारा ने पूछा
क्या तुम सागर हो ?
उत्तर मिला
नहीं मैं सागर नहीं हूँ ,
सागर होना चाहता हूँ .
सुना है बहुत दुरूह है सागर होना
भय लगता है मुझे
कि सागर तक पहुँचने से पहले ही
कहीं मैं सूख न जाऊँ.
इसी लिए यात्रा आरम्भ नहीं कर पाता
और जहाँ का तहाँ खड़ा हूँ.
क्या तुम मेरी मदद करोगी ?
निर्भय, निर्भीक और हठी जलधार ने
पल भर कुछ सोचा फिर कहा
चलो मेरे साथ .
कुछ क्षण पश्चात्
जल-प्रपात कहीं नहीं था
नन्ही सी जलधार विस्तृत हो
नदीबन चुकी थी !
अबाध गति से बढ़ रही थी वह
सागर को पाने
बिना ये जाने
कि सागर कहाँ है ?

कभी भी, कहीं भी, किसी भी
मोड़ पर मुड़ जाती थी वह
यह सोच कर कि
शायद सागर यहाँ हो !
हर मोड़, हर गाम, हर ठौर
उसे मिला
एक और जल
एक और धारा
एक और झरना
एक और नद
एक और त्वरा
एक और उद्वेग
एक और उफान
सब के सब सागर की खोज में थे .
एक-एक कर
समाहित होते गए सब उसमें
और बढ़ता चला गया
नन्ही सी नदी का विस्तार !

बहते-बहते रुक गई है वह,
थम गई है वह ,
नहीं थकी नहीं है वह
किन्तु जहाँ पहुँच गई है
उके आगे कुछ शेष नहीं है.
अपने चारों ओर बह-बह कर
लौटना पड़ता है उसे
बार-बार स्वयं में !
बहत गहरी, बहुत विस्तृत, बहुत स्थिर
कितु बहुत बेचैन है वह
बार-बार पूछती है
सागर कहाँ है ?
सागर कहाँ है
कहाँ है सागर ?
कोई उसे बता क्यों नहीं देता
वह सागर हो गई है
वह सागर हो गई है !!

दीप्ति मिश्र 
15.4.2002

Tuesday 4 February 2014

निर्भया

                                     निर्भया 

दामिनी चली गई और छोड़ गई अपने पीछे एक सवाल ....आखिर हम हैं क्या?...कौन हैं?...क्यों हैं?
स्त्री या पुरुष होना पाप नहीं है,पाप है इन्सानियत का मर जाना. दामिनी के साथ जो कुछ भी हुआ उसने पूरे हिंदुस्तान को हिला कर रख दिया और एका-एक सभी नींद से जग पड़े,कोई आँख मलते हुए तो कोई उबासी लेते हुए सुर में सुर मिलाने लगा दामिनी को इन्साफ़ दो.
कैसा इन्साफ़?
अगर दामिनी आज जीवित होती तो इन्साफ़ के नाम पर क्या मिल जाता उसे? गुनहगारों को चाहे जो भी सज़ा मिले क्या दामिनी की सहजता-सरलता और मासूमियत लौट पाती कभी?
सवाल ये नहीं है कि गुनहगारों को सज़ा क्या मिले? सवाल ये है कि इस तरह के वहशी दरिन्दे हैं ही क्यों? ये पैदा कहाँ हुए? ये पनपे कहाँ? इस ज़हरीले पौधे को पनपने के लिए खाद-पानी-मिट्टी कहाँ से मिले ? इस पौधे को हम सब नें मिलजुल कर पाला-पोसा है. इसकी देख-भाल कर के नहीं बल्कि इसकी अनदेखी कर के. अगर बीज को प्रस्फुटित होते ही कुचल दिया जाता तो आज ये नौबत नहीं आती. कहने का तात्पर्य ये है कि जिस वक्त वहशत,गुनह,बर्बरता पनप रही होती है उस वक्त हम जान कर भी अनजान बने रहते हैं क्योंकि इसका सीधा ताल्लुक हमसे नहीं होता. अपने आस-पास के माहौल से बेखबर आँखें बंद किए हम इस उम्मीद में जीते रहते हैं कि सब ठीक है.....सब ठीक हो जाएगा...! जब एका-एक कोई अनहोनी घट जाती है तो चौंक कर उठते हैं,भौचक हो कर इधर-उधर ताकते हैं और जब इस बात का डर का सताने लगता है कि कहीं “हमारे अपने” के साथ ऐसी दुर्घटना न घट जाए तो खिसिया कर तडा-तड़ इल्ज़ामों कि झड़ी लगा देते हैं
क्या कर रही है पुलिस? क्या कर रहा है समाज? क्या कर रहा है देश? अपनें दिल पर हाथ रख कर एक बार भी नहीं पूछते कि हम क्या कर रहे हैं? क्यों नहीं झकझोरते अपनाप को? क्यों नहीं पूछते अपनेआप से कि हमारी संवेदनशीलता कहाँ मर गई? क्यों आस-पास हो रहे ज़ुल्मो-सितम से हमारा कोई सरोकार नहीं है? क्यों सब कुछ देख-सुन कर भी हमारा खून नहीं खौलता और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं?
सच-सच बताइये कितनी ही बार आपने लड़कियों को बद्तमीजी या अभद्रता का शिकार होते हुए देखा होगा,क्या एक बार भी रोकने या टोकने की कोशिश की? या चुप-चाप पल्ला झाड़ के निकल लिए कि “भाई कौन पड़े इस वबाल में”. या ये सोच के चल दिए कि “छोड़ो भी कुछ देर में सब ठीक हो जाएगा”. या ये सोच कर निकल लिए कि “दूसरे के मामले में हम क्यों टांग अड़ाए”? या ये सोच कर चले आए कि “ये सब तो रोज़मर्रा की घटनाएँ हैं कहाँ तक कोई अपना टाइम वेस्ट करे”. यही वजह है कि दिन-पर-दिन इन वहशी दरिन्दों का हिम्मत बढ़ती चली जा रही है और ये निरंकुश होते जा रहे हैं. इन्हें किसी का भय नहीं है क्योंकि ये जान गए हैं कि शराफ़त और बुझदिली में कोई खास फ़र्क नहीं है. अगर शुरुआत में हीं इन्हें हम “आम-आदमियों” द्वारा रोका-टोंका या दण्डित किया जाता तो निश्चित रूप से इनका दुस्साहस इतना नहीं बढता. सभी इल्मी और फ़िल्मी मित्रों से निवेदन है कभी उन ख़बरों का भी हिस्सा बनें जिनका ज़िक्र अख़बारों या टीवी पर नहीं होता. अगर समाज की एक इकाई “मैं” अपनी ज़िम्मेदारी से मुहँ न मोड़े और “हम” में शामिल हो जाए तो निश्चित रूप से सुधार की संभावना बनती है.
बचपन से लेकर आज तक,एक नहीं अनेक बार ....
अपने से लेकर पराए तक ,छोटे से लेकर बड़े तक ,घर से ले कर बाहर तक,मेरा और इस दरिन्दे का आमना-सामना हुआ है लेकिन कुछ संस्कार थे,कुछ हिम्मत थी,कुछ आत्मविश्वास था और कुछ थी ऊपर वाले की कृपा,कि हर बार मैं जीती और दरिन्दा हार गया. ये जीत मेरी नहीं थी ये जीत थी मेरे संस्कारों की,मेरी हिम्मत और हौसले की,मेरे आत्मविश्वास की जो मुझे मेरे अपनों और आस-पास के वातावरण से मिला. ये जीत उन सभी अपने-परायों की थी जिन्होनें उस वक्त मेरा साथ दिया. 
लड़कियों से मुझे यही कहना है कि रोने-धोने ,गिडगिडाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला, अगर आप खुद अपने लिए आवाज़ नहीं उठाएगीं तो कोई भी आपका साथ नहीं देगा. अपनें साथ कुछ भी गलत न होने दें ....जानती हूँ कि ये आपके बस में नहीं है मगर अगर कुछ गलत होता है तो उसका विरोध ज़रूर करें. ज़रूरत है हिम्मत,हौसले और आत्मविश्वास की. ज़रूरत है उस सोच को बदलने की जिसने आपको कमज़ोर और लाचार बना दिया है. उसी वक्त उस दरिन्दे को मुँह तोड़ जवाब दें भले ही वो आपका चाचा-ताऊ ही क्यों न हो. मत सोचिये कि लोग क्या कहेंगे,जिन्हें कहना है वो हर हाल में कुछ न कुछ कहेंगे. आप बस ये सोचिये कि जुर्म करने वाले से ज्यादा बड़ा दोषी जुर्म सहने वाला होता है. आपको समाज में शान से जीने का हक है आगे बढ़िए और गर्व के साथ अपना हक लीजिए. हर माता-पिता से विनम्र निवेदन है कि वो बच्चों को ऐसे संस्कार दें कि वो बड़े होकर स्त्री और पुरुष के सम्बन्ध को सम्मान दे सकें.

आज दामिनी के लिए जिस किसी माध्यम से जो कुछ भी किया जा रहा है उससे मेरा कोई विरोध नहीं है लेकिन उसके साथ जो कुछ भी हुआ उस सब के पीछे कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैं,आप मानें या न मानें मैं मानती हूँ और सिर्फ इतना कहना चाहती हूँ कि अपनी प्रतिक्रिया के लिए बड़ी दुर्घटनाओं का इंतज़ार न करें आस-पास जहां भी कुछ गलत होते देखें ...तो  रोकें ,टोकें और एक जिम्मेदार  नागरिक होने का फ़र्ज़ अदा करें.. ये भी बता दूँ कि जब भी आप ऐसा कुछ करने के लिए बढेंगें इस तथाकथित सभ्य समाज के लोग आप को ज्ञान देंगें ये क्या बेवकूफी करने जा रहे हो...?पागल हो गए हो क्या...? मगर उनकी एक मत सुनिये ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है आप आगे बढेंगें तो भले ही सौ लोग चुप-चाप तमाशा देखते रहें मगर एक ज़रूर होगा जिसका ज़मीर मरा नहीं होगा वो आपका साथ देगा....फिर दो.....फिर तीन.......फिर चार............!!

52 रूपए कि साड़ी

                                        52 रूपए की साड़ी (12.5.213)



बात है 78-79 की तारीख याद नहीं ... मम्मी-पापा को बिना बताए खेल-खेल में ऑल इण्डिया रेडियो का ऑडिशन दे आई थी. क्या पता था सलेक्ट हो जाउंगी ......पहला ड्रामा किया तो 50 रुपए का चेक मिला. ज़िदगी की पहली कमाई ..... बड़ी शान से मम्मी-पापा को लेकर साड़ी की दुकान पर गयी थी, मम्मी ने अपने पसन्दीदा लाल-काले रंग की साड़ी (धोती) जिसपे कैरियाँ बनी थीं पसन्द की थी. 52 रूपए की साड़ी थी 2 रूपए पापा ने दिए थे. एडमिनिस्ट्रेटर पापा की पत्नी, मेरी माँ अपनी लाड़ली से 52 रूपए की साड़ी पाकर, भीगी पलकें लिए खुश थीं बहुत खुश .... जैसे अनमोल हीरा मिल गया हो .....पापा उन्हें देख कर मुस्करा रहे थे और मैं.. मैं अपने आप को किसी महारानी से कम नहीं समझ रही थी..... !! मैं जिन्हें खुश करना चाहती थी वो खुश हो रहे थे .... मुझे खुशी देकर.....! कितनी सहज-सरल-निश्छल खुशी थी हम सब की !!! वैसी खुशी फिर कभी नहीं मिली बहुत पैसे कमाए बहुत गिफ्ट लिए–दिए .....

आज  Mother’s Day पर याद आ गया, सोचा आप के साथ बाट लूँ …..