Wednesday 23 December 2009

कब से अपनी खोज में हूँ


कब  से  अपनी खोज  में  हूँ  मुब्तला मैं
कोई   बतलाए   कहाँ   हूँ   गुमशुदा   मैं

देखती हूँ   जब  भी  आईने  में ख़ुद  को
सोचती    हूँ   कौन   हूँ   नाआशना   मैं

ये    नहीं   वो   भी   नहीं   कोई   नहीं   ना
ना-नहीं का मुस्तकिल इक  सिलसिला मैं 

कितने   टुकड़ों   में  अकेली  जी  रही  हूँ
मैं ही मंज़िल , मैं ही रस्ता , फ़ासला   मैं

वक़्त   के  काग़ज़ पे ख़ुद को लिख रही हूँ
शायराना    ज़िन्दगी   का   फ़लसफ़ा   मैं

दीप्ति मिश्र  

Tuesday 22 December 2009

DHARM

धर्म 


दाढ़ी और टोपी ,टीका और चोटी 
देख कर -----
मुझमें छुपी नन्ही-सी बच्ची 
डर जाती है !
और मेरा वयस्क मन --
कसैला हो जाता है !
'अज़ान' और 'आरती' की आवाजें 
बम-विस्फ़ोटों और गोलियों की धाँय-धाँय  से 
लिपट कर ,कुछ ऐसे गरजती हैं  
जैसे चन्दन से लिपटा विषैला नाग 
फन उठाए फुफकार रहा हो !!

बचपन में माँ अक्सर कहतीं थीं -
"बिटिया! सदा धर्म का पालन करना,
अपना धर्म कभी मत छोड़ना"
तब समझ ही नहीं पाती थी 
कि वास्तव में ये "धर्म" है क्या ?

आज भी नहीं समझ पाई हूँ !
हाँ इतना ज़रूर जान गई हूँ 
कि "अधर्म"के जन्म का आधार है 
"धर्म"!!!!
तुम्हारा -मेरा ,इसका-उसका 
हम सबका "धर्म"!!

"धर्म" से "अधर्म" तक की यात्रा तो हो चुकी 
आओ !अब एक नई शुरुआत करें 
"अधर्म" के माध्यम से ---
'धर्म" के सही अर्थ को ग्रहण करें 
और ज़ख़्मी इंसानियत के 
रिसते हुए घावों पर 
स्नेह का फाहा धरें !!!

दीप्ति मिश्र 

Monday 21 December 2009

TUMHE KISNE

ग़ज़ल 


तम्हें   किसने   कहा  था , तुम  मुझे  चाहो  बताओ  तो 
जो दम भरते हो चाहत का ,तो फिर उसको निभाओ तो 

दिए  जाते  हो  ये  धमकी ,गया  तो  फिर  न  आऊँगा  
कहाँ   से   आओगे  पहले  मेरी  दुनिया  से   जाओ  तो

मेरी  चाहत भी है  तुमको और अपना घर भी प्यारा है 
निपट लूँगी मैं हर ग़म से , तुम अपना घर बचाओ तो 

तुम्हारे   सच    की   सच्चाई   पे   मैं   क़ुर्बान  हो  जाऊँ
पर अपना सच बयां  करने की तुम हिम्मत जुटाओ तो 

फ़क़त   इन   बद्दुआओं    से  , बुरा   मेरा  कहाँ  होगा 
मुझे   बर्बाद   करने    का   ज़रा   बीड़ा   उठाओ   तो 

दीप्ति मिश्र   

सोचती हूँ कि मैं



सोचती  हूँ  कि   मैं   सोचना  छोड़   दूँ 
या तो  फिर  सोच की  सब  हदें तोड़ दूँ 

जिस  तरफ़  एक  तूफ़ान  उठने  को  है 
उस तरफ़ अपनी कश्ती का रुख़ मोड़ दूँ 

गर मुहब्बत न  रिश्तों  की  मोहताज  हो 
सारे    रिश्ते    यहीं - के - यहीं   तोड़   दूँ

टूट  कर  चाहने  का   मैं  क्या  दूँ  सिला 
तुम   मुझे  तोड़  दो,   मैं   तुम्हे  जोड़  दूँ

मुझ से आजिज़ हैं सब ,ख़ुद से आजिज़ हूँ मैं 
क्या    करूँ   ख़ुद  को  मैं  अब  कहाँ  छोड़  दूँ

दीप्ति मिश्र 

JISSE TUMNE KHUD KO DEKHA

ग़ज़ल

जिससे तुमने ख़ुद  को देखा ,हम वो  एक  नज़रिया  थे 
हम से ही अब क़तरा हो तुम ,हम से ही तुम  दरिया  थे 

सारा  - का - सारा  खारापन    हमने  तुम से   पाया   है 
तुमसे  मिलने से पहले तो , हम एक मीठा दरिया  थे 

मखमल की ख्वहिश थी तुमको ,साथ भला कैसे निभता
हम   तो  संत  कबीरा  की  झीनी  सी  एक  चदरिया  थे 

अब समझे ,क्यों हर चमकीले रंग से मन  हट जाता  था 
बात असल में  ये  थी ,  हम  ही  सीरत  से  केसरिया  थे

जोग  लिया  फिर  ज़हर पीया , मीरा सचमुच दीवानी थी 
तुम  अपनी  पत्नी, गोपी  और   राधा  के   सांवरिया   थे 

दीप्ति मिश्र 

WO EK DARD JO

ग़ज़ल 


वो एक दर्द जो मेरा  भी  है , तुम्हारा  भी
वही  सज़ा  है  मगर  है  वही  सहारा  भी

तेरे  बग़ैर  कोई  पल   गुज़र  नहीं   पाता
तेरे  बग़ैर  ही  इक  उम्र   को  गुज़ारा  भी 

तुम्हारे   साथ   कभी   जिसने  बेवफ़ाई  की
किसी तरह न हुआ फिर वो दिल हमारा भी

तेरे  सिवा  न  कोई    मुझसे  जीत पाया था 
तुझी  से  मात   मिली  है  मुझे  दुबारा   भी 

अभी - अभी  तो जली हूँ , अभी न  छेड़ मुझे 
अभी  तो   राख   में  होगा  कोई   शरारा  भी

दीप्ति मिश्र

Sunday 20 December 2009

SOCH

सोच

तुम्हारी 'सोच' पर
न तो मेरा अख्तियार था न हक़ !
फिर क्यों तुमने उम्मीद जगा दी
कि तुम भी मेरी तरह सोचोगे  ?

तुमने जताया था,
तुमने बताया था,
तुमने दिखाया था
कि तुम औरों से अलग हो
ठीक मेरी तरह  !!

जानती थी मैं
कि सब छलावा है ! दिखावा है !
मगर फिर भी यक़ीन कर बैठी !
जानते हो क्यों ?
क्यों कि तुम्हारे जुनून की कशिश
मुझे भा गई थी !!

धीरे-धीरे हम क़रीब आते गए
इतने क़रीब कि न चाहते हुए भी
मुझे वो सब नज़र आने लगा
जिसे तुमने बड़े क़रीने से
खुद से भी छुपा रक्खा था !

मैं कब तक आँखें बंद रखती ?
मैनें आँखें खोल दीं ---
और तुम रू-ब-रू हो गए
अपनी हक़ीक़त से !!

मैंने कुछ नहीं जताया
मैंने  कुछ नहीं बताया
मैंने  कुछ नहीं दिखाया

फिर किसलिए -
आज मेरे अख्तियार में है
तुम्हारी 'सोच'
और मुठ्ठी  में है
तुम्हारा पूरा का पूरा
'वुजूद' !!!

दीप्ति मिश्र 

Friday 18 December 2009

WO NAHEN MERA MAGAR


ग़ज़ल

 वो   नहीं   मेरा  मगर  उस्से  मुहब्बत   है  तो  है
 ये  अगर रस्मों -  रिवाजों  से  बग़ावत  है  तो  है

   सच को मैने सच कहा,जब कह दिया तो कह दिया
   अब  ज़माने  की  नज़र  में  ये   हिमाक़त है तो  है 

     जल  गया परवाना  गर तो  क्या  ख़ता है शम्मा की
     रात भर जलना- जलाना उसकी  क़िस्मत  है  तो  है 

       दोस्त   बन   कर  दुश्मनों  सा  वो   सताता   है   मुझे   
       फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है
 
     कब  कहा  मैनें की वो  मिल जाए  मुझको , मैं  उसे 
      ग़ैर   ना  हो  जाए  वो  बस  इतनी  हसरत है  तो  है 

  दूर  थे  और   दूर  हैं  हर   दम  ज़मीनो  - आसमाँ
   दूरियों  के  बाद  भी   दोनों   में   क़ुर्बत   है  तो  है

दीप्ती मिश्र  

Tuesday 15 December 2009

KITAAB


किताब



किताबें पढ़ना मेरी पुरानी आदत है
शायद  इसीलिए --
जीवन में आने वाले हर व्यक्ति को 
किताब की तरह बाँच डालती हूँ


कोई "उपन्यास", कोई "कहानी",
कोई "कविता" तो कोई "छणिका" 
के रूप में होता है !

कोई "महीनों", कोई "हफ़्तों",
कोई "घंटों" तो कोई "क्षण" भर  को
मेरे मानस को उद्वेलित करता है !


कोई साहित्यिक धरोहर-सा 
मेरे मन के किताबघर में 
सहेज लिया जाता है 
तो कोई अश्लील पुस्तक-सा 
फाडकर हवा में उड़ा दिया जाता है !


लेकिन फिर भी --
कुछ निरर्थक नहीं होता 
"बुरा" ,"गन्दा" ,"अशलील"
सब सार्थक हैं  !
इन्हीं के परिपेक्ष में 
'अच्छा","स्वच्छ" और शिष्ट 
उजागर होता है 
और मेरे व्यक्तित्व में 
एक नया निखार आता है !


लेकिन अब मैं --
इन किताबों को पढ़ते -पढ़ते 
उकता गई हूँ !
सभी कहानियाँ 
एक ही सी तो होती हैं !
खूबसूरत जिल्द में मढ़ी हों 
या फुटपाथ पर पड़ी हों 
क्या फर्क पड़ता है ?
सार तो सबका एक ही है !
कहीं लेखक बड़ा तो शब्द छोटे 
कहीं शब्दों में सार 
तो व्यक्तित्व तार-तार !!


अजीब घाल-मेल है ,
सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया है
किताबें  तो पूरी हैं 
पर कहानियाँ अधूरी !!


बस इसीलिए --
अब मैं लोगों को 
किताबों की तरह नहीं पढ़ती ,
उन्हें पूरी तरह समझने की 
कोशिश नही करती ,
जब जो पन्ना खुल जाता है ,
पढ़ लेती हूँ ,समझ लेती हूँ ,
बन्द अध्याय को 
बन्द  ही रहने देती हूँ 
 ताकि --
पढ़ने का चाव बना रहे 
कुछ नया होने का भ्रम 
बचा रहे !!!!


दीप्ति मिश्र 
         

SOORYAAST

सूर्यास्त


समझदार लोग --
अक्सर मुझे टोंकते हैं ,
कहते हैं ---
सूर्यास्त मत देखा करो ,
अपशकुन होता है !
सब चढ़ते सूरज को
प्रणाम करते हैं !
लेकिन मुझे --
तुम्हारा "डूबना" अच्छा लगता है ,
क्योंकि मैं तुम्हारे प्रकाश को नहीं ,
"तुम्हे"देखना चाहती हूँ !!
तुम्हे अनुभूत करना चाहती हूँ !!!

वैसे तुम उगते हुए भी
बहुत प्यारे लगते हो !
नवजात  शिशु- सी 
तुम्हारी "रक्तिम आभा"
           नेत्रों में ज्योति भर देती है ,        
लेकिन यह  स्थिति -
अधिक देर तक नहीं रहती -
धीरे-धीरे तुम्हारे प्रकाश से
सारा संसार जगमगा उठता है !
तब तुम ऐसे तेजस्वी राजा के
सामान होते हो --
जो अपने ही ताप से
तमतमा उठा हो !

तुम्हारे जगर-मगर प्रकाश में
सृष्टि की एक-एक संरचना ,
स्पष्ट रूप से दिखाई देती है ,
किन्तु मैं तुम्हे नहीं देख पाती
मेरी आँखें चौंधिया  जाती हैं !!

दिन भर अपने ही ताप से
तपते हुए तुम
जब संध्याकाल में
विश्राम करते हो
तब तुम्हारा सुनहरा वेष
जोगिया हो जाता है !
ऐसा प्रतीत होता है
जैसे कहीं एकांत में
कोई साधू समाधिस्थ  हो
डूबता जा रहा हो
ध्यान की गहराइयों में !!

ऐसे में -
सागर किनारे बैठ कर
जी भर कर देखती हूँ मैं तुम्हें 
दूर क्षितिज में

और
 धीरे-धीरे ---
डूबती जाती हूँ -
तुम्हारे साथ
तुम्हारे ध्यान की
गहराइयों में !!

दीप्ति मिश्र

Monday 7 December 2009

अहिल्या

   

वो किसी और की  पत्नी थी !
   उस पर  मोहित हो  गया कोई और  !
इस दूसरे ने ---
उसे पाने के लिए "छल" किया
और पहले ने 
 क्रोधित हो शाप दिया !!  
                
सदमा इतना गहरा था कि--
सन्न ! अवाक ! स्पन्दनहीन  !
नारी-देंह "पत्थर" हो गई !!
मौसम बीते ,फिर सहसा --
एक तीसरे के स्पर्श ने ,
पत्थर में" प्राण" फूँक दिए !


वो पत्थर जो अब स्त्री है ,
बैठे -बैठे सोच रही है --
एक ने छला !
एक ने शाप दिया !
और
एक ने जीवनदान !
इन तीन चरित्रों को 
 एक सूत्र में बाँधने वाली
अपनी इस कहानी में
"मैं" कहाँ हूँ ??

ये तो --------
तीन पुरुषों की इच्छा- पूर्ति के
"माध्यम" की कहानी है !!
इसमें " मैं" कहाँ हूँ ???
क्या पुरुष की "इच्छा" ही --
स्त्री की "नियति" है ???

नहीं ! ये मेरी कहानी
नहीं हो सकती !!!
वो उठी ----
उसने "अहिल्या " नाम का
चोला उतारा --
और चल पड़ी -----
अपने "अस्तित्व " की
तलाश में !!!!!
दीप्ति मिश्र

DOHE


दोहे 
*
रिश्तों के बाज़ार में ,चाहत का व्यापार ,
तोल -मोल कर बिक रहे ,इश्क ,मुहब्बत ,प्यार !
*
अपनी -अपनी कल्पना ,अपना -अपना ज्ञान '
जिसकी जैसी आस्था ,वैसा है भगवान् !


DUSTBIN


DUSTBIN


मैं एक --
SOPHISTICATED DUSTBIN हूँ  !
मेरी   SOCIETY के  लोग ,
जब  जी  चाहे ,मुझमें
अपना  कचरा  डाल जातें  हैं
और   ----
साफ़  हो  जाता  है ,
उनका  SO-CALLED घर  !!

लेकिन ----
मुझे  साफ़  करने  के  लिए ,
MUNICIPALITY की  गाड़ी,
नहीं  आती  !

मैं   इस  कचरे  को
खंगालती हूँ ,
छानती हूँ  !
कुछ  अच्छा मिल   जाता  है ,
तो  सहेज  लेती  हूँ  !!
जो  अच्छा  नहीं  होता ,
उसे  RECYCLE कर
स्वच्छ  बना  लेती  हूँ ,
स्वच्छ  हो  जाती  हूँ  !!

लेकिन  कब  तक  ??
कब  तक मैं
दूसरों  के  "विकार "
दूर  करती  रहूंगी  ??
क्या  ऐसा    कोई    पात्र  नहीं
जिसकी  पात्रता  में
"मैं " समा  सकूँ  ???

पागल  हूँ  मैं
एक  DUSTBIN के  लिए --
खोजती  हूँ ------
दूसरा  "DUSTBIN" !!!!

दीप्ति  मिश्र


aaj ka din

आज  का  दिन  ...
अच्छा बिता ... जीत  हुई ,' इच्छा' की मुश्किलों पर !
इंसान जो चाहे पा लेता है , बस इच्छा-शक्ति  होनी चाहिए !!!

दीप्ति मिश्र