Saturday 29 September 2012

DIPTI MISRA IN BHEL MUSHAYRA BHOPAL

Tuesday 25 September 2012

Saturday 22 September 2012

Wednesday 5 September 2012

माँ


                        माँ


बच्चों को लाड़-प्यार से पाल-पोस कर
बड़ा तो कर दिया उसने लेकिन
खुद वहीं अटक कर रह गई !!

आज भी बच्चों के साथ बच्चा बन कर
खेलने को ललक उठती है !!

झूठ-मूठ में रूठ जाती है
कि बच्चे मनाएंगे !

झूठ-मूठ में रोने लगती है
कि बच्चे चुपाएंगे !

झूठ-मूठ में डर जाती है
कि बच्चे सीने से लिपटाएंगे

लकिन बच्चे...
न मनाते हैं
न चुपाते हैं
 ना ही सीने से लिपटाते हैं 

वो अब समझदार हो गए हैं जानते हैं
 कि ये माँ का खेल है
सब झूठ-मूठ है !

बस माँ ही नहीं जानती
कि सब झूठ-मूठ है
झूठ–मूठ !!  

दीप्ति मिश्र  
5.9.2012

Tuesday 7 August 2012

परिचय : दीप्ति मिश्र : 

दीप्ति मिश्र की एक ग़ज़ल का रदीफ़ "है तो है" इतना मशहूर हुआ कि आज वो दीप्ति मिश्र का दूसरा नाम बन गया है -

वो नहीं मेरा मगर उस से मुहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों -रिवाजों से बगावत है तो है


उतर प्रदेश के एक छोटे से कस्बेनुमा शहर लखीमपुर - खीरी में दीप्ति मिश्र का जन्म श्री विष्णु स्वरुप पाण्डेय के यहाँ 15 नवम्बर 1960 को हुआ। गोरखपुर से हाई स्कूल करने के बाद दीप्ति जी ने बी.ए. बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से किया। मेरठ यूनवर्सिटी से एम्.ए किया।

सन् 1997 में दीप्ति मिश्र का पहला काव्य संकलन "बर्फ़ में पलती हुई आग " मंज़रे -आम पे आया। इस शाइरी में मुहब्बत के रंगों के साथ औरत के वजूद की संजीदा फ़िक्र भी थी। दीप्ति मिश्र की शाइरी में बेबाकी, सच्चाई और साफगोई मिसरी की डली की तरह घुली रहती है।

दुखती रग पर उंगली रखकर पूछ रहे हो कैसी हो 
तुमसे ये उम्मीद नहीं थी ,दुनिया चाहे जैसी हो 


दीप्ति मिश्र दूरदर्शन और आकाशवाणी से अधिकृत अदाकारा थी। अभिनय के शौक़ के चलते 2001 में मुंबई आ गई। राजश्री प्रोडक्शन के चर्चित टी.वी सीरियल "वो रहने वाली महलों की " के सभी थीम गीत दीप्ति मिश्र ने लिखे। 

औरत-मर्द के रिश्तों की पड़ताल दीप्ति जी ने बड़ी बारीकी से की है और उसपे अपनी राय भी बे-बाकी से दी जो उनके शे'रों में साफ़ देखने को मिलता है।

दिल से अपनाया न उसने ,ग़ैर भी समझा नहीं 
ये भी इक रिश्ता है जिसमें कोई भी रिश्ता नहीं 

तुम्हे किसने कहा था ,तुम मुझे चाहो, बताओ तो 
जो दम भरते हो चाहत का ,तो फिर उसको निभाओ तो 

दीप्ति मिश्र का दूसरा काव्य संकलन 2005 में आया जिसका नाम वही उनकी ग़ज़ल का रदीफ़ जो दीप्ति का दूसरा नाम अदब की दुनिया में बन गया "है तो है "। इसका विमोचन पद्म-विभूषण पं.जसराज ने किया सन् 2008 में दीप्ति मिश्र का एक और संकलन उर्दू में आया "बात दिल की कह तो दें "।
दीप्ति मिश्र बहुत से टेलीविजन धारावाहिकों में अभिनय किया है जिसमें प्रमुख है जहाँ पे बसेरा हो , कुंती, उर्मिला, क़दम, हक़ीक़त , कुमकुम, घर एक मंदिर और शगुन। तनु वेड्स मनु , एक्सचेंज ऑफर और साथी -साथी संघाती(भोजपुरी ) फिल्मों में भी दीप्ति मिश्र ने अपने अभिनय किया है। आने वाली फ़िल्म "पत्थर बेज़ुबान " के तमाम गीत दीप्ति मिश्र ने लिखे। दीप्ति मिश्र की ग़ज़लों का एक एल्बम "हसरतें " भी आ चुका हैजिसे गुलाम अली और कविता कृष्णमूर्ती ने अपनी आवाज़ से नवाज़ा है .

Devmani Pandey devmanipandey@gmail.com

परिचय - सच को मैंने सच कहा


सच को मैंने सच कहा ,जब कह दिया तो कह दिया
अब   ज़माने   की   नज़र   में   ये   हिमाकत   है तो है

एक शख्सियत ....  दीप्ति मिश्र
 शाइरी के हाल और माज़ी के पन्ने अगर पलट के देखें तो एक बात साफ़ है कि मरदाना फितरत ने  अदबी लिहाज़ से शायरात की ग़ज़ल में हाज़िरी को बा-मुश्किल माना है  हालांकि  कुछ ऐसी शायरात है जिन्होंने अपने   शानदार  क़लाम   से इस  मरदाना फितरत को मजबूर किया है कि वे अदब में   इनकी  मौजूदगी  का एहतराम करें  ! आज के दौर में कुछ ड्रामेबाज़ शाइरों और दूसरो से  ग़ज़ल कहलवा कर लाने वाली कुछ शायरात ने अदब कि आबरू को ख़तरे  में डाल दिया है !जिन शायरात ने अपने होने का एहसास करवाया है उनकी तादाद शायद एक आदमी के हाथ में जितनी उंगलियाँ होती है उनसे   ज़ियादा नहीं है ! अदब में बे- अदब होते अदीबों की गुटबाजी,बड़े - बड़े शाइरों  के  अलग अलग धड़े  ,ग़ज़ल को ऐसे माहौल में सांस लेना मुश्किल हो गया है ऐसे में एक नाम दूसरों  से अलग नज़र आता है वो नाम है शाइरा "दीप्ति मिश्र" ! पहली मरतबा 1997  में  दिल्ली में एक  कवि - सम्मलेन में उन्हें सुनने का अवसर मिला !  दीप्ति मिश्र को दावते - सुखन दिया गया  ,बिना किसी बनावट के अपने चेहरे जैसी मासूमियत से उन्होंने ग़ज़ल पढ़ी  ,ग़ज़ल का लहजा बिल्कुल अलग ,बहर ऐसी की जो कभी पहले न सुनी  , रदीफ़ ऐसा जिसे निभाना वाकई मुश्किल ही नहीं बेहद मुश्किल  मगर दीप्ति मिश्र अपने अलेदा से अंदाज़ में अपनी ग़ज़ल पढ़कर बैठ गई  और सामईन के दिल में छोड़ गई  अपने लहजे और कहन की गहरी छाप ! उनकी उस ग़ज़ल का  रदीफ़ "है तो है"  इतना मशहूर हुआ की आज वो दीप्ति मिश्र का दूसरा नाम बन गया है ! ग़ज़ल के बड़े बड़े समीक्षक ,आलोचक इस ग़ज़ल को सुनने के बाद  ये लिखने पे विवश हुए की दीप्ति मिश्र के रूप में ग़ज़ल को एक नया लहजा मिल गया है ,दीप्ति की दीप्ति अब मधम होने वाली नहीं है !जिस ग़ज़ल ने दीप्ति मिश्र को अदब की दुनिया में एक पहचान दी उसके चंद अशआर मुलाहिजा फरमाएं :---
वो नहीं मेरा मगर उस से मुहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों -रिवाजो से बगावत है तो है
जल गया परवाना ग़र तो क्या ख़ता है शम्मा की
रात भर जलना-जलाना उसकी क़िस्मत है तो है
दोस्त बनकर दुश्मनों सा वो सताता है मुझे
फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फितरत है तो है
इस ग़ज़ल ने दीप्ति मिश्र को शाइरी के समन्दर में ऐसी कश्ती बना दिया जिसने फिर न तो कभी किसी  किनारे की तमन्ना की न ही  किसी   तूफ़ान से वो खौफ़ज़दा  रही !
उतर प्रदेश के एक छोटे से कस्बेनुमा शहर लखीमपुर - खीरी में  दीप्ति मिश्र का जन्म श्री विष्णु स्वरुप पाण्डेय   के यहाँ 15 नवम्बर 1960 को हुआ !इनके वालिद मुनिसपल बोर्ड में अधिकारी थे सो जहाँ जहाँ उनकी मुलाज़मत रही वहीं वहीं दीप्ति जी की शुरूआती तालीम हुई ! गोरखपुर से हाई स्कूल करने के बाद दीप्ति जी ने बी.ए बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी  से किया  !बचपन से ही   इन्हें लिखने और अभिनय का शौक़ था  और ये परवान चढ़ा ईल्म- ओ- तहज़ीब के शहर बनारस में ! दिसम्बर 1982   में दीप्ति जी उस बंधन में बंधी  जिसकी डोर में बंधना हर लड़की का सपना होता है, दीप्ति पाण्डेय अब दीप्ति मिश्र हो गई और वे फिर अपने शौहर के साथ ग़ाज़ियाबाद आ गई !तालीम से उनका राब्ता ख़त्म ना हुआ ग़ाज़ियाबाद में इन्होने मेरठ यूनवर्सिटी से एम्.ए किया और इसी दरमियान गीत और ग़ज़ल के बहुत बड़े स्तम्भ डॉ. कुंवर बैचैन से दीप्ति जी की मुलाक़ात हुई !दीप्ति जी पहले आज़ाद नज़्में लिखती थी इनकी नज़्में पढ़कर किसी ने कहा कि इन नज्मों में परवीन शाकिर कि खुश्बू आती है !अपने जज़बात  ,अपनी अभिवयक्ति को बहर और छंद कि बंदिश में लिखना दीप्ति जी को शुरू में ग़वारा नहीं हुआ  पर कुंवर बैचैन साहेब कि रहनुमाई ने ग़ज़ल से दीप्ति मिश्र का त-आर्रुफ़  करवाया !हर शाइर /शाइरा कि ज़िन्दगी में ये वक़्त आता है कि वो जो भी कहे सब बहर में आ जाता है, दीप्ति मिश्र अब ग़ज़ल कि राह पे  चल पड़ी  थी ये नब्बे के दशक के शुरूआती साल थे !
1997 में दीप्ति मिश्र का पहला मजमुआ ए क़लाम "बर्फ़ में पलती हुई आग " मंज़रे आम पे आया ,इस किताब का विमोचन साहित्यकार और उस वक़्त के कादम्बिनी के सम्पादक  राजेन्द्र  अवस्थी जी ने किया ! इससे पहले  अक्टूबर 1995 में  एक दिलचस्प बात ये हुई की दीप्ति जी ने अपनी एक ग़ज़ल कादम्बिनी में छपने के लिए भेजी ,वो ग़ज़ल ये कहकर लौटा दी गई कि  रचना कादम्बिनी के मेयार की नहीं है और फिर वही ग़ज़ल उनसे विशेष आग्रह कर कादम्बिनी के लिए मांगी गई !  उस ग़ज़ल का ये शे'र बाद में बड़ा मशहूर हुआ :-
उम्र के उस मोड़ पर हमको मिली आज़ादियाँ
कट चुके थे पंख जब ,उड़ने का फन जाता रहा
इसके बाद दीप्ति जी को कवि सम्मेंलनों के निमंत्रण आने लगे मगर कवि-सम्मलेन के मंचों पे होने वाले ड्रामे, कवियत्रियों के साथ बर्ताव नामचीन कवियों कि गुटबाजी ये सब देख उन्होंने मंच पे जाना छोड़ दिया !रायपुर के अपने पहले  मुशायरे में दीप्ति जी के क़लाम पे जो सच्ची दाद उन्हें मिली उसकी मुहब्बतों ने उन्हें कवियत्री से शाइरा बना दिया !
वक़्त के साथ - साथ दीप्ति मिश्र शाइरी की एक ख़ूबसूरत तस्वीर हो गई जिसकी शाइरी में मुहब्बत के रंगों  के साथ औरत के वजूद कि संजीदा फ़िक्र भी थी ! ग़ज़ल कि इस  नायाब तस्वीर बनाने में एक मुसव्विर  के ब्रश का भी कमाल  शामिल था वो थे मारुफ़ शाइर मंगल नसीम साहब !
दीप्ति मिश्र की शाइरी   में बेबाकी,  सच्चाई और साफगोई   मिसरी की डली की तरह घुली रहती है ,सच हमेशा कड़वा होता है पर दीप्ति जी  अपने कहन की माला में सच के फूलों  को इस तरह पिरोती है कि उस माला से सिर्फ़  मेयारी शाइरी  की खुश्बू आती है :--
उनसे कोई उम्मीद करें भी तो क्या भला
जिनसे किसी तरह की शिकायत नहीं रही
दिल रख दिया है ताक पर हमने संभाल कर
लो अब  किसी तरह की भी दिक्क़त नहीं रही
***
दुखती रग पर उंगली रखकर पूछ रहे हो कैसी हो
तुमसे ये उम्मीद नहीं थी ,दुनिया चाहे जैसी हो
दीप्ति मिश्र दूरदर्शन और आकाशवाणी से अधिकृत अदाकारा  थी सो अपने अभिनय के शौक़ के चलते 2001 में मुंबई आ गई पर शाइरी उनका पहला शौक़ ही नहीं जुनून भी  था !मुंबई के एक मुशायरे में उन्होंने अपनी ग़ज़ल पढ़ी तो एक साहब उनके ज़बरदस्त मुरीद हो गये ,मुशायरे के बाद उन्होंने अपना कार्ड उन्हें दिया और मिलने का आग्रह किया जब दीप्ति जी ने घर जाके वो कार्ड देखा तो वो राजश्री प्रोडक्शन के राजकुमार बड़जात्या का था ! राजकुमार बड़जात्या ने उन्हें  सिर्फ़ अपने प्रोडक्शन के लिए लिखने का आग्रह किया  पर दीप्ति जी के मन में जो परिंदा था उसने किसी क़फ़स में रहना गवारा नहीं समझा और बड़ी शालीनता से दीप्ति मिश्र ने उनका प्रस्ताव नामंजूर कर दिया हालांकि उनके चर्चित टी.वी सीरियल "वो रहने वाली महलों की " के सभी थीम गीत दीप्ति मिश्र ने लिखे !
दीप्ति मिश्र अपनी  शाइरी में  सिर्फ़ औरत होने का दर्द बयान नहीं करती बल्कि औरत - मर्द के रिश्तों की उलझी हुई कड़ियों को खूबसूरती से सुलझाती है और मर्दों से अपना मुकाबिला सिर्फ़ अपने औरत होने भर के एहसास के साथ करती है ! औरत - मर्द के रिश्तों की पड़ताल दीप्ति जी ने बड़ी बारीकी से की है और उसपे अपनी राय भी बे-बाकी से दी जो उनके शे'रों में साफ़ देखने को मिलता है !
दिल से अपनाया न उसने ,ग़ैर भी समझा नहीं
ये भी इक रिश्ता है जिसमें कोई भी रिश्ता नहीं
****
तुम्हे किसने कहा था ,तुम मुझे चाहो, बताओ तो
जो दम भरते हो चाहत का ,तो फिर उसको निभाओ तो
मेरी चाहत भी है तुमको और अपना घर भी प्यारा है
निपट लूंगी मैं हर ग़म से ,तुम अपना घर बचाओ तो
*****
जिससे तुमने ख़ुद को देखा ,हम वो एक नज़रिया थे
हम से  ही अब क़तरा हो तुम हम से  ही तुम दरिया थे
सारा का सारा खारापन   हमने   तुमसे    पाया है
तुमसे मिलने से पहले तो हम एक  मीठा दरिया थे
दीप्ति मिश्र का दूसरा मजमुआ ए क़लाम मंज़रे आम पे  2005  में   आया जिसका नाम वही उनकी ग़ज़ल का रदीफ़ जो दीप्ति का दूसरा नाम अदब की दुनिया में बन गया "है तो है " इसका इज़रा  (विमोचन)  पद्म-विभूषण श्री जसराज ने किया और इस लोकार्पण में पं.जसराज ने उनकी बेहद मकबूल ग़ज़ल का मतला (वो नहीं मेरा मगर उससे मुहब्बत है तो है )गाया भी ! 2008    में दीप्ति मिश्र का एक और मजमुआ उर्दू में आया "बात दिल की कह तो दें "
ख़ुदा की मेहरबानी दीप्ति साहिबा पे कुछ ज़ियादा ही हुई है वे शाइरा के साथ - साथ बेहतरीन अदाकारा भी है इन्होने बहुत से टेलीविजन धारावाहिकों में अभिनय किया है जिसमें प्रमुख है जहाँ पे बसेरा हो , कुंती, उर्मिला, क़दम, हक़ीक़त , कुमकुम, घर एक मंदिर और शगुन !बहुत से धारावाहिकों के थीम गीत भी दीप्ति जी ने लिखे है ! तनु वेड्स मनु , एक्सचेंज   ऑफर और साथी -कंधाती(भोजपुरी ) फिल्मों में भी दीप्ति मिश्र ने अपने अभिनय का लोहा मनवाया है !
आने वाली फ़िल्म "पत्थर बेज़ुबान " के तमाम गीत दीप्ति मिश्र ने लिखे है जिसमे कैलाश खैर ,रूप कुमार राठौड़ , श्रेया घोषाल ,और एक ठुमरी शोमा घोष ने गाई  है !दीप्ति मिश्र की गजलों का एक एल्बम "हसरतें "  भी आ चुका है जिसे  ग़ुलाम अली और कविता कृष्णा मूर्ति ने अपनी आवाज़ से सजाया है !
दीप्ति मिश्र की शाइरी का एक पहलू अध्यात्म भी है, ज़िन्दगी के फ़लसफ़े को भी उन्होंने मुख्तलिफ अंदाज़ से  शे'र बनाया है :---
बेहद बैचेनी है लेकिन मकसद ज़ाहिर कुछ भी नहीं
पाना-खोना ,हँसना-रोना ,क्या है आख़िर कुछ भी नहीं
*****
सब यही  समझे  नदी सागर  से मिलकर  थम  गई
पर नदी  तो वो सफ़र  है जो कभी  थमता  नहीं
दीप्ति मिश्र ने दो मिसरों में अपनी मुकम्मल बात कहने का दूसरा फन "दोहे " भी लिखे और  दोहों पे भी अपने कहन की मोहर लगाईं :--
रिश्तों के  बाज़ार में ,   चाहत   का   व्यापार !
तोल ,मोल कर बिक रहे, इश्क़ ,मुहब्बत ,प्यार !!
अपनी अपनी कल्पना ,अपना अपना ज्ञान !
जिसकी जैसी आस्था ,वैसा है भगवान् !!
बहुत सी अदबी तंजीमों ने दीप्ति मिश्र को एज़ाज़ से नवाज़ा मगर सबसे बड़ा उनके लिए इनआम उनकी नज्मों और उनकी गजलों के वो मुरीद है जो इनसे  अपने दिल पे लगे ज़ख्मों   के लिए  मरहम  का काम लेते है ! दीप्ति मिश्र ने  जीवन के ऐसे  पहलुओं को शाइरी बनाया है जिसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता !उनके शे'र अपना   ज़ाविया और  तेवर भी अलग रखते है ! दीप्ति मिश्र की शाइरी  रूह  और जिस्म  के फासले  को अपने ही  अन्दाज़ से परिभाषित करती है :--
 अपनी -अपनी क़िस्मत सबकी अपना-अपना हिस्सा है
जिस्म की ख़ातिर लाखों सामाँ ,रूह की ख़ातिर कुछ भी नहीं
******
जिस्म क्या चीज़ है ये जाँ क्या है
और दोनों के दरमियाँ क्या है
****
फ़क़त जिस्म ही जिस्म से मिल रहे हैं
ये कैसी जवानी ?ये कैसी जवानी ?
दीप्ति मिश्र नाम के शाइरी के  अनोखे तेवर पर अदब को फ़ख्र  है और अदब को उनसे  उम्मीदें भी बहुत है !आख़िर में दीप्ति जी के इन मिसरों  के साथ विदा लेता हूँ ..अगले हफ्ते फिर किसी शख्सियत से रु-बरु करवाने का वादा ...
बहुत फ़र्क़ है ,फिर भी है एक जैसी
हमारी कहानी ,तुम्हारी कहानी
तेरे पास ऐ ज़िन्दगी अपना क्या है
जो है सांस आनी ,वही सांस जानी

विजेंद्र शर्मा
vijendra.vijen@gmail.com


Thursday 19 July 2012

Jahan Pe Basera Ho Promo 2 By Micky

Jahan Pe Basera Ho Music Promo By Micky

A new family soap Jahan Pe Basera Ho

Saturday 14 July 2012

Monday 28 May 2012

कहॉं दर्द है कुछ ख़बर

 

कहाँ  दर्द   है  कुछ  ख़बर  ही   नहीं   है 
कि  अब  दर्द का कुछ असर  ही  नहीं है

मेरे   घर  में   मेरी  बसर  ही   नहीं   है 
जिसे   घर  कहूँ  ये  वो  घर  ही  नहीं है

मैं किस आस्ताँ पर करूँ  जा के सजदा 
झुके  जिसपे  सर  ऐसा  दर  ही नहीं है 

भरोसा   है उसके  ही  वादे  पे  मुझको 
मुकरने   में  जिसके कसर ही  नहीं है 

ये  किस मोड़ पर आ गई ज़िन्दगानी
कहानी   में  ज़ेरो -ज़बर  ही   नहीं   है 

दीप्ति मिश्र 

Thursday 17 May 2012

अपूर्ण


अपूर्ण 


हे सर्वज्ञाता ,सर्वव्यापी ,सार्वभौम !
क्या सच में तुम सम्पूर्ण हो ?
"हाँ "कहते हो तो सुनों -

सकल ब्रम्हांड में 
यदि कोई सर्वाधिक अपूर्ण है 
तो वो "तुम" हो !!
होकर भी नहीं हो तुम !!!
बहुत कुछ शेष है अभी ,
बहुत कुछ है जो घटित होना है !
उसके बाद ही तुम्हें सम्पूर्ण होना है!

हे परमात्मा !
मुझ आत्मा को 
विलीन होना है अभी तुममें!
मेरा स्थान रिक्त है अभी तुम्हारे भीतर 
फिर तुम सम्पूर्ण कैसे हुए ?

तुममें समाकर "मैं"
शायद पूर्ण हो जाऊं !
किन्तु "तुम" ?
"तुम" तो तब भी अपूर्ण ही रहोगे 
क्योंकि -
मुझ जैसी -
जानें कितनी आत्माओं की रिक्तता से 
भरे हुए हो "तुम" !

जाने कब पूर्ण रूप से भरेगा 
तुम्हारा ये रीतापन -
ये खालीपन !!
जाने कब ?
जाने कब ?

दीप्ती मिश्र  

Tuesday 15 May 2012

लम्स


अजीब रिश्ता है 
उसके और मेरे बीच !
मेरे लिए वो -
एक महकता हुआ हवा का झोंका है !
और 
उसके लिए मैं-
एक खूबसूरत वुजूद !

वो जब चाहे आता है 
और समेट लेता है-
मेरा पूरा का पूरा वुजूद अपने में...!

जिस्म से लेकर रूह तक 
महक उठती हूँ मैं !
महसूस करती हूँ रग-रग में 
उसकी एक-एक छुअन !
थाम लेना चाहती हूँ उसे 
हमेशा-हमेशा के लिए !
लेकिन 
ऐसा नहीं होता ,कभी नहीं होता !
चला जाता है वो ,जब जाना होता है उसे !
फिर भी 
मुझे उसी का इंतज़ार रहता है !
सिर्फ़ उसका इतजार !!

वो अपनी मर्ज़ी का मालिक है 
और 
मैं अपनें मन की गुलाम !!
उसके हिस्से में- 
"आती हूँ पूरी की पूरी मैं" 
और 
मेरे हिस्से में आता है -
"चंद लम्हों के लम्स का अहसास" !!!
  

दीप्ती मिश्र  

Monday 14 May 2012

प्यास


सच है - प्यासी हूँ मैं
बेहद प्यासी !
मगर 
तुमसे किसनें कहा -
कि तुम मेरी प्यास बुझाओ ?

मझसे कही ज़्यादा रीते ,
कहीं ज़्यादा खाली हो तुम !
और तुम्हे अहसास तक नहीं !!

भरना चाहते हो तुम -
अपना खालीपन 
मेरी प्यास बुझानें के नाम पर !!

ताज्जुब है !
मुकम्मल बनाना चाहता है मुझे 
एक -
"आधा-अधूरा इंसान "!!

दीप्ती मिश्र

Friday 11 May 2012

रिश्ता

                                                                                  

एक थी सत्री 
और
 एक था पुरुष 
दोनों में कोई रिश्ता न था .
फिर भी दोनों एक साथ रहते थे .
बेइंतिहा प्यार करते थे एक-दूसरे  को ,
तन-मन-धन से !

दोनों में नहीं निभी ,
अलग हो गए दोनों !

किसी नें सत्री से पुछा -
वो पुरुष तुम्हारा कों था ?
सत्री नें कहा -
प्रेमी जो पति नहीं बन सका !

किसी ने पुरुष से पूछा -
वो सत्री तुम्हारी कों थी ?
उत्तर मिला -
"रखैल"!!!

दीप्ती मिश्र

Wednesday 15 February 2012

विचित्र

 

बहुत विचित्र थी वो -
बिल्कुल जल में कमल  की तरह ...
जल ,जो उसका जीवन था 
 कभी सिक्त नहीं कर सका उसे !
जल-कण कुछ पल को 
पंखुरियों पर ठहरते -
फिर ढलक जाते !!

बहत विचित्र थी वो -
बिलकुल उस बंजारन की तरह ...
जिसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं !
एक पल यहाँ ,दूसरे पल वहाँ ...
तो तीसरे पल ... जानें कहाँ !!

बहुत विचित्र थी वो 
बिलकुल उस पंछी की तरह ...
जिसकी उड़ान के लिए -
आकाश छोटा था !
वो उड़ान भारती गई ....
 घोसला छूटता गया !!

बहुत विचित्र थी वो -
न आसक्त ,न विरक्त !
न तृप्त ,न अतृप्त !
न बंदी ,न मुक्त  !

जाने क्या खोजती थी वो ?
जाने क्या था ...
जो नहीं था ??

किसी ज्ञानी नें उससे पूछा  -
क्यों भटकती हो ?
उसनें कहा --पता नहीं !
ज्ञानी--अज्ञानी हो तुम .
वो -- हो सकता है !
ज्ञानी -- क्या चाहती हो ?
वो -- यही तो जानना हैं !
ज्ञानी -- मेरी शरण में आजाओ 
सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँगे .
वो -- लेकिन प्रश्न तो -
आप मुझसे पूछ रहे हैं !
मैंने  तो कोई प्रश्न पूछा ही नहीं !!
ज्ञानी -- पूछोगी 
पहले मुझे अपना गुरू बनाओ .
वो-- ठीक है 
किन्तु एक समस्या है !
ज्ञानी -- क्या ?
वो - आपको "गुरू" बनाने के लिए 
मुझे "लघु" बनना पड़ेगा !  

ज्ञानी निरुत्तर था 
और 
वो निश्चिन्त !!!!!!!

दीप्ती मिश्र