Monday 16 August 2010

ऐसा नहीं कि उनसे


ऐसा   नहीं    कि   उनसे    मुहब्बत  नहीं   रही  
बस  ये   हुआ  कि  साथ  की आदत  नहीं    रही 

दुनिया   के   काम   से  उसे   छुट्टी   नहीं   मिली 
हमको   भी     उसके    वास्ते  फ़ुर्सत  नहीं   रही 

कुछ  उसको इस जहाँ  का चलन रास आ  गया 
कुछ  अपनी भी वो पहले- सी फ़ितरत नहीं रही 

उससे   कोई   उमीद   करें   भी   तो   क्या    करें 
जिससे   किसी   तरह  की  शिकायत   नहीं  रही 

दिल   रख   दिया  है ताक  पे हमनें निकाल  कर 
लो  अब किसी  भी किस्म की दिक्क़त  नहीं  रही 

दीप्ति मिश्र 

Saturday 14 August 2010

प्रत्युत्तर





चाहे - अनचाहे 
 जाने -अनजाने 
कितनी ही बार
 मिले हो तुम मुझे 
बस यूँ ही !
"तुम" 
 एक ऐसा अनुभूत सत्य 
जो सदा बंटा रहा -----
छोटे - छोटे टुकड़ों में !

रंग -बिरंगे फूलों ,
झूमते-मदमाते पेड़ों ,
मासूम मुस्कुराहटों ,
और प्रेमासक्त नेत्रों में 
देखा है मैनें -
तुम्हारा रंग !

पत्तियों की सरसराहट ,
पंछियों की  चहचहाहट ,
नदियों की कल-कल
बूंदों की टप-टप 
बच्चों की किलकारियों
और माँ की लोरियों में 
सुनी है मैनें -
तुम्हारी वाणी !

हर सुबह -
सूरज बन उतरे तुम मेरे पोर-पोर में 
तुम्हारे स्पर्श नें -
कभी मेरी ठिठुरन को ऊष्मा दी 
तो कभी तीव्र ताप नें 
झुलसाया मुझे 
कभी शीतल-मंद समीर बन 
मेरे रोम-रोम को स्पंदित किया तुमनें 

कभी धरा तो कभी पर्वत बन 
तुमनें मुझे आधार दिया !
आकाश के इस छोर से उस छोर तक 
अनुभूत किया है मैनें तुम्हारा विस्तार !

अपनी प्रेमाभिव्यक्ति के लिए 
कितनी ही  देह धारण की तुमनें 
प्रेम का प्रत्युत्तर था प्रेम 
सो तुम्हें मिला !

किन्तु "तुम " ?
तुम हर बार 
मुझसे प्रेम का अनुदान ले ,
ओझल हो गए कहीं !
और छोड़ गए अपनें पीछे 
मूल्यहीन देह  !
जो मेरे लिए निरर्थक थी ,
मैनें तुम्हें ,सिर्फ़ तुम्हें चाहा था 
जब तुम देह में थे तब भी -
और जब तुम देह में नहीं थे तब भी !

जन्म लिया है मैनें 
एक अपूर्णता के साथ 
और प्राप्त करना है मुझे पूर्णत्व 
  यही नियम है ना तुम्हारी सृष्टि का ?

किन्तु तुमने - अपने लिए 
कोई नियम क्यों नहीं बनाया ?
तुम तो - सम्पूर्ण हो ,
तुम्हें नियमों से क्या भय ?
क्या तुम्हारी समग्रता का कोई नियम नहीं ?

छला है तुमनें सदा-सर्वदा मुझे !
छलूंगी अब मैं तुम्हें 
जब भी ,जिस किसी रूप में 
आओगे तुम मेरे पास 
स्वीकार लूंगी तुम्हें एक बार फिर 
और ---- नकार दूँगी 
 स्वयं अपने अस्तित्व को 
विलीन हो जाऊंगी मैं --
तुम्ही में तुम्हारी तरह !
अनभूत करोगे तुम 
मुझे अपनेआप में 
किन्तु पा नहीं सकोगे !

सृष्टि के इस छोर से उस छोर तक 
व्याप्त हो जाउंगी मैं 
हर  क्षण ,हर पल ,हर जगह 
अनुभूति होगी तुम्हें मेरी 
किन्तु मैं नहीं मिलूंगी 
मुझसे मेरा "मैं" पाने के लिए  
आना होगा तुम्हें मुझ तक 
एक बार सिर्फ़ एक बार 
अपनी पूर्ण समग्रता के साथ !!!!

दीप्ति मिश्र

Wednesday 4 August 2010

Sunday 25 July 2010

Saturday 24 July 2010

Sunday 11 July 2010

गन्तव्य




शांत,शीत श्वेत,
सघन -शिखर पर 
स्थित थी वो !
निर्विकार ! निर्विचार !
जानें किसनें उसे बता दिया -
उसके जीवन का सार है -
"सागर" !

 शांत चित्त उद्वेलित हुआ
विचार और विकार की ऊष्मा पा-
पिघलने लगी बर्फ़ की चट्टान !
जन्मी एक आस 
उपजा एक विश्वास
ज्ञात हुआ एक लक्ष-
सागर ! सागर ! सागर !
उसे सागर तक जाना था 
सागर को पाना था 
सागर हो जाना था !!

बहुत रोका गया ,
टोका  गया  उसे की-
शिखर से धरा तक और 
धरा से अतल गहराइयों तक 
झुकते चले जाने की यात्रा 
बहुत कष्टप्रद , बहुत कठोर ,
बहुत जटिल , बहुत दुरूह है!

पर उसे तो लौ लगी थी 
बस अपनें "सागर" की !
उसका गन्तव्य था "सागर"!
उसका सत्य था "सागर"!
उसका सर्वस्व था "सागर"!

बस फिर क्या था-
पूर्ण आत्म-विश्वास
और आस्था बटोर
बह चली -
हरहराती,मदमाती
लहराती,बलखाती
अपनी धुन में मस्त !

हरियाली बिखेरती,
प्यासों की प्यास बुझाती
तपतों का ताप मिटाती
बहती जाती निर्बाध गति से
नन्ही सी जलधार
सागर को पानें
बिना ये जाने
की सागर कहाँ है ?

राह में मिला उसे
 एक जल-प्रपात
धारा नें पूछा-
क्या तुम सागर हो ?
जल-प्रापात नें कहा-
नहीं मैं सागर नहीं हूँ  ,
सागर होना चाहता हूँ !
सुना है --
बहुत दुरूह है सागर होना
भय लगता है मुझे ,
सागर तक पहुँचने से पहले ही
कहीं सूख ना जाऊं !
इसी लिए -
यात्रा आरंभ नहीं कर पाता
और जहाँ का तहां खड़ा हूँ !
क्या तुम मेरी मदद करोगी ?

निर्भय हठी और
 आत्मविश्वासी जल-धारा  नें
पल भर कुछ सोचा ,
फिर कहा -चलो मेरे साथ !
कुछ छण पश्चात् -
जल-प्रापात कहीं नहीं था
नन्ही -सी जलधार विस्तृत हो -
"नदी" बन चुकी थी !

अबाध गति से बढ़ रही थी वो
सागर को पानें
बिना ये जानें
की सागर कहाँ है ?
सो कभी भी ,कहीं भी
किसी भी मोड़ पर 
 मुड़ जाती थी
ये सोच कर की -
शायद सागर यहाँ हो !
हर मोड़ , हर गाम , हर ठौर
उसे मिला-
 एक और जल
एक और धारा
एक और झरना
एक और नद
एक और त्वरा
एक और उद्वेग
एक और उफान
सब के सब सागर की खोज में थे
एक-एक कर 
सब समाहित होते गए उसमें और
बढ़ता चला गया
नन्ही सी नदी का विस्तार !

बहते-बहते रुक गई है वो,
थम गई है वो !
 नहीं ,थकी नहीं है 
किन्तु जहाँ पहुँच गई है -
उसके आगे कुछ शेष नहीं !
अपने चारों ओर बह-बह कर
लौटना पड़ता है उसे बार-बार स्वयं में !
बहुत गहरी बहुत विस्तृत,बहुत स्थिर
   किन्तु बहत बेचैन है वो !
बार-बार पूछती है --
सागर कहाँ है ?
सागर कहाँ है ?
कहाँ है सागर ?

???

कोई उसे बता क्यों नहीं देता --
वो सागर हो गई है !!
वो सागर हो गई है !!

दीप्ति मिश्र

Sunday 20 June 2010

भगवान और इन्सान





पता नहीं- 
तुमनें उसे बनाया है 
उसने  तुम्हें !
किन्तु तुम दोनों ही 
एक जैसा खेल खेलते हो 
एक दूसरे के साथ !

थोड़ी-सी मिट्टी
थोडा- सा पानी 
थोड़ी-सी हवा 
थोड़ी-सी आग
और  
थोडा-सा आकाश ले
 गढ़ते हो तुम 
एक खिलौना !

कठपुतली-सा उसे नाचते हो, 
अपना  मन बहलाते हो,
और  जब उकता जाते हो 
तब-
मिट्टी को मिट्टी 
पानी को पानी 
हवा को हवा 
आग को आग 
और 
आकाश को आकाश में 
विलीन कर 
समाप्त कर देते हो 
अपना खेल !!!

ठीक ऐसा ही खेल 
वो भी ही खेलता है
तुम्हारे  साथ !!

बड़े ही जतन से -
कभी दुर्गा,तो कभी गणपति के रूप में 
साकार करता है वो तुम्हें !
फिर होती है -
तुम्हारी " प्राण-प्रतिष्ठा " !!
जब तुम प्रतिष्ठित हो जाते हो ,
तब  --
पूजा-अर्चन ,आरती-स्तुति 
फल-फूल ,मेवा-मिष्ठान 
रोली- अक्षत ,नारियल-सुपारी 
दीप-धूप,घंटा-घड़ियाल 
के अम्बार लग जाते हैं !
खूब शगल रहता है कुछ दिन तक !!
फिर--
 एक निश्चित अवधि के पश्चात
तुम्हारे  भक्त 
झूमते-नाचते 
गाते-बजाते 
विसर्जित  कर देते हैं 
तुम्हें जल में 
और साथ ही 
विसर्जित हो जाती है 
उनकी--
 सारी आस्था
सारी  श्रद्धा 
और सारी भक्ति !!!

सागर किनारे ,नदिया तीरे 
बिखरे तुम्हारे छिन्न-भिन्न अंग 
साक्षी हैं इस बात के ,कि --
देंह धारण कर ,
तुम भी टूटते हो 
तुम भी बिखरते हो 
तुम्हारी भी मृत्यु  होती है !!!

किन्तु --

तुम-दोनों के खेल में 
एक अंतर है -
तुम्हारे द्वारा बनाया गया इन्सान 
जीवन में सिर्फ़ एक बार 
मृत्यु को प्राप्त होता है 
किन्तु
 इन्सान द्वारा बनाए गए भगवान 
तुम्हारी मृत्यु --
अनंत है ...! अनंत ...!!!

दीप्ति मिश्र

Thursday 17 June 2010

Thursday 10 June 2010

Friday 4 June 2010

DIPTI MISRA WITH GHULAM ALI PART 1.wmv

Thursday 3 June 2010

KHAYYAM SAHEB BDAY.wmv

DIPTI MISRA PUNE FEST 2004

DIPTI MISRA PUNE FEST PART 2.wmv

DIPTI MISRA PUNE FEST 2003 PART 1

KATNI MUSHAYRA 2010 DEEPTI MISHRA.wmv PART2

KATNI MUSHAYRA 2010 DEEPTI MISHRA PART1.wmv

DIPTI MISRA PUNE FEST PART 2.wmv

DIPTI MISRA WITH GHULAM ALI.wmv

Friday 30 April 2010

CHAAR CHAUK SOLAH


                           चार चौक सोलह 


बियर की एक ख़ाली बोतल ,चाय के दो जूठे कप
और वातावरण का बासीपन ,बैरा उठा कर ले गया  !
देखते ही देखते --
फाइव स्टार होटल का तरो-ताज़ा भरा-पूरा कमरा 
मेरे मन के साथ एकदम ख़ाली हो गया !!!!!

कुछ देर पहले ----

इस बिखरे हुए बेतरतीब कमरे में 
सोफे की सिकुड़नों  ,बिस्तर की सिलवटों
कुछ स्पर्श ,कुछ गंध और कुछ आहटों  
कहे-अनकहे शब्दों की ध्वनियों 
कहकहों-खिलखिलाहटों की गूँज
के बीच तुम सबका अहसास सँजोए,
 अकेली कहाँ थी मैं!!


एकाकी बैठी सोच रही हूँ---


चार दिशाएँ अपने सारे पूर्वाग्रह त्याग
कुछ यूँ आ मिलीं कि हमारी चौकड़ी  बन गई !
एक-दूसरे की खूबियाँ और ख़ामियाँ
 स्वीकारते हुए, गलबहियां डाले ,
हम चार पल, चार क़दम साथ चले !
कभी मन्दिर की चौखट चूमी
तो कभी चौगड्डा जमाया !!


हममें से कोई दो होते तो वो बात नहीं होती ,
तीन होते तो भी वो बात नहीं होती ,
चारों होते तो क्या बात होती !!


सोचती हूँ ये सब चार ही क्यों
आठ या दस क्यों नहीं ?
ये ज़िन्दगी भी तो चार दिन की है
शायद इसी लिए !!


जाने-अनजाने हम एक-दूसरे को वो दे गए
जिसे स्वयं से नहीं पाया जा सक्ता
जब-जब हम मिले चार-चौक सोलह हो गए
सोलह आने खरे और पूर्ण !!!

कैसा अद्भुत आनंद था
 इस सहज-सरल और निश्छल सान्निध्य  में !
दुःख इसका नहीं कि हम बिछड़ गए
सुख इसका है कि हम मिले
इतना ही यथेष्ट है !!!
CHEERS !!!!


दीप्ति मिश्र






  नोट –ये कविता फिल्म तनू वेड्स मनू की शूटिंग के दौरान लिखी गई थी  राजेन्द्र गुप्ता ,के के रैना ,नवनी परिहार और मेरी बेबाक दोस्ती ही इस कविता की जन्मदात्री है .

Friday 16 April 2010

KAHAN SE CHALE THE



ग़ज़ल

कहाँ  से  चले  थे  , कहाँ  आए  हैं हम 
ये बदले में  अपने  किसे  लाए  हैं  हम 

नहीं   फ़र्क़   अपने - पराए   में   कोई 
सभी   अजनबी  हैं  जहाँ  आए  हैं हम 

हमें  कोई  समझा  नहीं तो  गिला क्या
कहाँ  ख़ुद ही ख़ुद को समझ पाए हैं हम

इन्हे भी  शिक़ायत , उन्हें  भी गिला  है 
ख़ुदा बन के  बेहद  ही  पछताए  हैं  हम 

ज़रा  सा   रुको   फिर   नई   चोट  देना 
अभी  तो  ज़रा सा  संभल  पाए  हैं  हम 

बुरे  से  बुरा  जो  भी   होना   है   हो  ले 
जो सबसे बुरा था  वो  सह  आए  हैं  हम 

दीप्ति मिश्र 

  


Thursday 1 April 2010

सुनहरी मछली



बात है तो विचित्र 
किन्तु फिर भी है !

हो गया था 'प्रेम' एक पुरुष को 
एक सुनहरी मछली से ! 
लहरों से अठखेलियाँ  करती,
बलखाती ,चमचमाती मछली 
भा गई थी पुरुष को !
टकटकी  बाँधे पहरों देखता रहता वह 
उस चंचला की अठखेलियाँ !
मछली को भी अच्छा लगता था 
पुरुष का यूँ निहारना !

बन्ध गए दोनों प्रेम- बंधन में !
मिलन की आकांक्षा स्वाभाविक थी !
पुरुष ने मछली से मनुहार की--
"एक बार,सिर्फ़ एक बार 
जल से बाहर आने का प्रयत्न करो "
प्रिय-मिलन की लालसा इतनी तीव्र थी 
कि भावविव्हल हो -
मछली जल से बाहर आ गई
छटपटा गई,बुरी तरह से छटपटा गई 
किन्तु अब वह प्रियतम की बाँहों में थी !
प्रेम की गहन अनुभूति में ......
कुछ पल को----
सारी तड़प,सारी छटपटाहट  जाती रही !
एकाकार हो गए दोनों !
ये प्रेम की पराकाष्ठा थी !!!

तृप्त हो ,प्रेमी नें प्रेयसी को 
फिर से जल में प्रवाहित कर दिया !
बड़ा विचित्र,बड़ा सुखद और 
बड़ा दर्दनाक था यह मेल !!!
हर बार पूरी शक्ति बटोर--
चल पड़ती प्रेयसी प्रीतम से मिलने
तड़फडाती-छटपटाती
प्रेम देती- प्रेम पाती
तृप्त करती - तृप्त होती
फिर लौट आती अपने जल में !
बहुत दिनों तक चलता रहा ये खेल !

एक दिन ----
मछली को जाने क्या सूझी ...
उसने पुरुष से कहा --
  " आज तुम आओ ! "
" मैं...मैं जल में कैसे आऊं ??
मेरा दम घुट जायगा !"-- पुरुष बोला
"कुछ पल को अपनी साँस रोक लो"-मछली नें कहा
साँस रोक लूँ ...यानी जीना रोक लूँ ??
कुछ पल 'जीने ' ही तो आता हूँ तुम्हारे पास ,
साँस रोक लूँगा तो जियूँगा कैसे ???-पुरुष ने कहा

मछली अवाक थी !!!
एक पल में -----
पुरुष-प्रकृति और प्रेम के पारस्परिक सम्बन्ध
का "सत्य " उसके सामने था !!!!
अब कुछ भी जानने-पाने और चाहने को शेष ना था !
मछली ने निर्विकार भाव से पुरुष को देखा ......
फिर डूब गई जल की अतल गहराइयों में !!!!

अनभिज्ञ पुरुष जीने की लालसा लिए
अभी तक वहीं खड़ा सोच रहा है
मेरा दोष क्या है ???

दीप्ति मिश्र

Sunday 28 February 2010

AKSHAR




अक्षर 


लिखते-लिखते 
शब्दों के जाल में 
उलझ गईं हूँ मैं !
शब्द से वाक्य 
वाक्य से अनुच्छेद 
अनुच्छेद से अध्याय 
अध्याय से ग्रन्थ 
तक की यात्रा 
क्यों करनी पड़ती है 
बार-बार मुझे ?
मैनें तो कभी 
कोई शब्द नहीं गढ़ा
फिर क्यों मुझे 
शब्दों से जूझना पड़ा ?
अनुभूति की सीमा में 
अक्षर 'अक्षर' है 
किन्तु अभिव्यक्त होते ही 
'शब्द' बन जाता है
और फिर से 
आरम्भ हो जाती है 
एक नई यात्रा -
शब्द,वाक्य ,अनुछेद 
अध्याय और ग्रन्थ की ! 
काश !!
कोई छीन ले मुझसे 
मेरी सारी अभिव्यक्ति 
और 
 अनुभूत हो मुझे अक्षर 
सिर्फ 
"अक्षर"!!!!!!!!!!

दीप्ति मिश्र 






Tuesday 23 February 2010

दुखती रग पर

 


दुखती  रग पर उंगली  रख कर पूछ रहे हो कैसी हो 
तुमसे  ये  उम्मीद नहीं थी , दुनिया  चाहे  जैसी हो 

एक तरफ़ मैं बिल्कुल तन्हा एक तरफ़ दुनिया सारी 
अब  तो जंग  छिड़ेगी  खुलकर , ऐसी हो या वैसी हो 

मुझको  पार  लगाने  वाले  जाओ तुम तो पार लगो 
मैं  तुमको  भी  ले  डूबुगीं  कश्ती  चाहे   जैसी   हो 

जलते  रहना,  चलते  रहना   तो  उसकी  मजबूरी  है 
सूरज नें ये कब चाहा  था  उसकी  क़िस्मत  ऐसी  हो 

ऊपरवाले ! अपनी जन्नत  और  किसी  को  दे  देना 
मैं  अपनी  दोज़ख़  में  ख़ुश  हूँ जन्नत चाहे जैसी हो 

दीप्ति मिश्र  

विश्राम

  

मेरी रीढ़ की हड्डी ने 
ऐलान कर दिया है --
 तुम्हारे पत्थर दिल का बोझ 
अब और नहीं उठा सकती !

दिमाग़ ने थक कर -
काम करने से इन्कार कर दिया है !

इस चलती-फिरती ज़िन्दा मशीन का 
एक-एक कलपुर्ज़ा मेरी ज़्यादतियों से 
 चरमरा कर बग़ावत पर उतर आया है !

 स्वार्थ कहता है -
इस जर्जर पिंजर को त्याग दो !

कर्तव्य कहता है रुको -
पहले मुझे पूरा करो !
  
शायद वक़्त आ गया है 
कि मैं अपनी इच्छा-शक्ति को भी  
विश्राम  दूँ और साक्षी भाव से देखूँ

ये "मैं" कर्तव्यपरायण है  
या स्वार्थी !!!

दीप्ति मिश्र 

Friday 19 February 2010

BEHAD BECHAENI HAI

ग़ज़ल 

बेहद   बेचैनी   है   लेकिन   मक़सद  ज़ाहिर  कुछ   भी  नहीं 
पाना - खोना, हँसना - रोना  क्या  है  आख़िर  कुछ भी नहीं  

अपनी - अपनी   क़िस्मत  सबकी, अपना- अपना  हिस्सा है 
जिस्म की ख़ातिर लाखों सामां,रूह की ख़ातिर कुछ भी नहीं 

उसकी   बाज़ी , उसके   मोहरे , उसकी  चालें , उसकी  जीत
उसके  आगे  सारे  शातिर  ,माहिर , क़ादिर  कुछ  भी   नहीं  

उसका   होना   या    ना   होना ,  ख़ुद  में   ज़ाहिर  होता   है 
गर  वो   है  तो  भीतर  ही  है  वरना  बज़ाहिर  कुछ भी  नहीं 

दुनिया  से   जो  पाया   उसने   दुनिया  ही   को  सौंप  दिया 
ग़ज़लें-नज़्में  दुनिया  की  हैं  क्या  है  शाइर  कुछ  भी  नहीं 

दीप्ति मिश्र 

Thursday 4 February 2010

SALEEB


सलीब 


संवेदना की सलीब पर ,
लटकी हुई 'मैं'
जाने कब से ...
अपने घाव धो-पोंछ रही हूँ !
लोग मेरे पास आते हैं 
मुझे अनुभूत करते हैं 
और 
घोल देते हैं 
अपनी सारी की सारी वेदना 
मेरी संवेदना में !
फिर कहते हैं --
'मेरी हो जाओ'
उत्तर में 'नहीं' सुनकर 
बौखला जाते हैं 
और
शब्दों का हथौड़ा लेकर 
'ठक्क' से ठोंक देते हैं
मेरे सीने में 
दुःख की एक और 'कील'!
 मैं कुछ नहीं कहती 
इधर मेरे घावों से
रिसने लगता है 
लहू  ...
उधर उनकी आँखों से 
आँसू !!

दीप्ति मिश्र 

Saturday 30 January 2010

MAIN GHUTNE TEK DUN


ग़ज़ल


मैं   घुटने  टेक दूँ   इतना   कभी   मजबूर   मत  करना
खुदाया   थक  गई   हूँ  पर   थकन  से चूर  मत करना

तुम   अपने   आपको  मेरी  नज़र  से  दूर  मत  करना 
इन   आँखों   को  खुदा  के  वास्ते   बेनूर  मत  करना 

मैं खुद को जानती हूँ  मैं   किसी   की  हो  नहीं  सकती
तुम्हारा   साथ  गर   मागूँ  तो  तुम  मंज़ूर मत  करना 

यहाँ  की   हूँ  वहाँ    की   हूँ   ख़ुदा  जाने   कहाँ   की  हूँ 
मुझे   दूरी   से   क़ुर्बत   है   ये   दूरी   दूर   मत   करना 

न घर अपना, न दर अपना, जो कमियाँ हैं वो कमियाँ हैं 
अधूरेपन   की    आदी    हूँ    मुझे   भरपूर   मत   करना 

दीप्ति मिश्र 
22.2.2010