किताब
किताबें पढ़ना मेरी पुरानी आदत है
शायद इसीलिए --
जीवन में आने वाले हर व्यक्ति को
किताब की तरह बाँच डालती हूँ
कोई "उपन्यास", कोई "कहानी",
कोई "कविता" तो कोई "छणिका"
के रूप में होता है !
कोई "महीनों", कोई "हफ़्तों",
कोई "घंटों" तो कोई "क्षण" भर को
मेरे मानस को उद्वेलित करता है !
कोई साहित्यिक धरोहर-सा
मेरे मन के किताबघर में
सहेज लिया जाता है
तो कोई अश्लील पुस्तक-सा
फाडकर हवा में उड़ा दिया जाता है !
लेकिन फिर भी --
कुछ निरर्थक नहीं होता
"बुरा" ,"गन्दा" ,"अशलील"
सब सार्थक हैं !
इन्हीं के परिपेक्ष में
'अच्छा","स्वच्छ" और शिष्ट
उजागर होता है
और मेरे व्यक्तित्व में
एक नया निखार आता है !
लेकिन अब मैं --
इन किताबों को पढ़ते -पढ़ते
उकता गई हूँ !
सभी कहानियाँ
एक ही सी तो होती हैं !
खूबसूरत जिल्द में मढ़ी हों
या फुटपाथ पर पड़ी हों
क्या फर्क पड़ता है ?
सार तो सबका एक ही है !
कहीं लेखक बड़ा तो शब्द छोटे
कहीं शब्दों में सार
तो व्यक्तित्व तार-तार !!
अजीब घाल-मेल है ,
सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया है
किताबें तो पूरी हैं
पर कहानियाँ अधूरी !!
बस इसीलिए --
अब मैं लोगों को
किताबों की तरह नहीं पढ़ती ,
उन्हें पूरी तरह समझने की
कोशिश नही करती ,
जब जो पन्ना खुल जाता है ,
पढ़ लेती हूँ ,समझ लेती हूँ ,
बन्द अध्याय को
बन्द ही रहने देती हूँ
ताकि --
पढ़ने का चाव बना रहे
कुछ नया होने का भ्रम
बचा रहे !!!!
दीप्ति मिश्र
कोई "घंटों" तो कोई "क्षण" भर को
मेरे मानस को उद्वेलित करता है !
कोई साहित्यिक धरोहर-सा
मेरे मन के किताबघर में
सहेज लिया जाता है
तो कोई अश्लील पुस्तक-सा
फाडकर हवा में उड़ा दिया जाता है !
लेकिन फिर भी --
कुछ निरर्थक नहीं होता
"बुरा" ,"गन्दा" ,"अशलील"
सब सार्थक हैं !
इन्हीं के परिपेक्ष में
'अच्छा","स्वच्छ" और शिष्ट
उजागर होता है
और मेरे व्यक्तित्व में
एक नया निखार आता है !
लेकिन अब मैं --
इन किताबों को पढ़ते -पढ़ते
उकता गई हूँ !
सभी कहानियाँ
एक ही सी तो होती हैं !
खूबसूरत जिल्द में मढ़ी हों
या फुटपाथ पर पड़ी हों
क्या फर्क पड़ता है ?
सार तो सबका एक ही है !
कहीं लेखक बड़ा तो शब्द छोटे
कहीं शब्दों में सार
तो व्यक्तित्व तार-तार !!
अजीब घाल-मेल है ,
सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया है
किताबें तो पूरी हैं
पर कहानियाँ अधूरी !!
बस इसीलिए --
अब मैं लोगों को
किताबों की तरह नहीं पढ़ती ,
उन्हें पूरी तरह समझने की
कोशिश नही करती ,
जब जो पन्ना खुल जाता है ,
पढ़ लेती हूँ ,समझ लेती हूँ ,
बन्द अध्याय को
बन्द ही रहने देती हूँ
ताकि --
पढ़ने का चाव बना रहे
कुछ नया होने का भ्रम
बचा रहे !!!!
दीप्ति मिश्र