Tuesday 15 December 2009

KITAAB


किताब



किताबें पढ़ना मेरी पुरानी आदत है
शायद  इसीलिए --
जीवन में आने वाले हर व्यक्ति को 
किताब की तरह बाँच डालती हूँ


कोई "उपन्यास", कोई "कहानी",
कोई "कविता" तो कोई "छणिका" 
के रूप में होता है !

कोई "महीनों", कोई "हफ़्तों",
कोई "घंटों" तो कोई "क्षण" भर  को
मेरे मानस को उद्वेलित करता है !


कोई साहित्यिक धरोहर-सा 
मेरे मन के किताबघर में 
सहेज लिया जाता है 
तो कोई अश्लील पुस्तक-सा 
फाडकर हवा में उड़ा दिया जाता है !


लेकिन फिर भी --
कुछ निरर्थक नहीं होता 
"बुरा" ,"गन्दा" ,"अशलील"
सब सार्थक हैं  !
इन्हीं के परिपेक्ष में 
'अच्छा","स्वच्छ" और शिष्ट 
उजागर होता है 
और मेरे व्यक्तित्व में 
एक नया निखार आता है !


लेकिन अब मैं --
इन किताबों को पढ़ते -पढ़ते 
उकता गई हूँ !
सभी कहानियाँ 
एक ही सी तो होती हैं !
खूबसूरत जिल्द में मढ़ी हों 
या फुटपाथ पर पड़ी हों 
क्या फर्क पड़ता है ?
सार तो सबका एक ही है !
कहीं लेखक बड़ा तो शब्द छोटे 
कहीं शब्दों में सार 
तो व्यक्तित्व तार-तार !!


अजीब घाल-मेल है ,
सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया है
किताबें  तो पूरी हैं 
पर कहानियाँ अधूरी !!


बस इसीलिए --
अब मैं लोगों को 
किताबों की तरह नहीं पढ़ती ,
उन्हें पूरी तरह समझने की 
कोशिश नही करती ,
जब जो पन्ना खुल जाता है ,
पढ़ लेती हूँ ,समझ लेती हूँ ,
बन्द अध्याय को 
बन्द  ही रहने देती हूँ 
 ताकि --
पढ़ने का चाव बना रहे 
कुछ नया होने का भ्रम 
बचा रहे !!!!


दीप्ति मिश्र 
         

4 comments:

ASHISH BATHIJA said...

Yes very true Diptiji,
The human mind is very funny. Sometimes it does not understand everything but accepts it and sometimes it understands and does not accept it.
Regards.
Ashish

Unknown said...

Thanks Aashish,
Achcha lagta hai jab jo jaesa kaha gaya hai use waesa hee samajh bhi liya jay!
Regards.
DIPTI

N.N.Sharma said...

Dear Dipti,

Life has got many dimesions and so preceptions of individuls.

Your understanding of the situation and objective reality sums up the evolving dimeson of life.

Always true but conflicting

N.N.Sharma

N.N.Sharma said...

u are true