तुम्हारी 'सोच' पर
न तो मेरा अख्तियार था न हक़ !
फिर क्यों तुमने उम्मीद जगा दी
कि तुम भी मेरी तरह सोचोगे ?
तुमने जताया था,
तुमने बताया था,
तुमने दिखाया था
कि तुम औरों से अलग हो
ठीक मेरी तरह !!
जानती थी मैं
कि सब छलावा है ! दिखावा है !
मगर फिर भी यक़ीन कर बैठी !
जानते हो क्यों ?
क्यों कि तुम्हारे जुनून की कशिश
मुझे भा गई थी !!
धीरे-धीरे हम क़रीब आते गए
इतने क़रीब कि न चाहते हुए भी
मुझे वो सब नज़र आने लगा
जिसे तुमने बड़े क़रीने से
खुद से भी छुपा रक्खा था !
मैं कब तक आँखें बंद रखती ?
मैनें आँखें खोल दीं ---
और तुम रू-ब-रू हो गए
अपनी हक़ीक़त से !!
मैंने कुछ नहीं जताया
मैंने कुछ नहीं बताया
मैंने कुछ नहीं दिखाया
फिर किसलिए -
आज मेरे अख्तियार में है
तुम्हारी 'सोच'
और मुठ्ठी में है
तुम्हारा पूरा का पूरा
'वुजूद' !!!
दीप्ति मिश्र
No comments:
Post a Comment