ग़ज़ल
कहाँ से चले थे , कहाँ आए हैं हम
ये बदले में अपने किसे लाए हैं हम
नहीं फ़र्क़ अपने - पराए में कोई
सभी अजनबी हैं जहाँ आए हैं हम
हमें कोई समझा नहीं तो गिला क्या
कहाँ ख़ुद ही ख़ुद को समझ पाए हैं हम
इन्हे भी शिक़ायत , उन्हें भी गिला है
ख़ुदा बन के बेहद ही पछताए हैं हम
ज़रा सा रुको फिर नई चोट देना
अभी तो ज़रा सा संभल पाए हैं हम
बुरे से बुरा जो भी होना है हो ले
जो सबसे बुरा था वो सह आए हैं हम
दीप्ति मिश्र