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Friday 16 April 2010

KAHAN SE CHALE THE



ग़ज़ल

कहाँ  से  चले  थे  , कहाँ  आए  हैं हम 
ये बदले में  अपने  किसे  लाए  हैं  हम 

नहीं   फ़र्क़   अपने - पराए   में   कोई 
सभी   अजनबी  हैं  जहाँ  आए  हैं हम 

हमें  कोई  समझा  नहीं तो  गिला क्या
कहाँ  ख़ुद ही ख़ुद को समझ पाए हैं हम

इन्हे भी  शिक़ायत , उन्हें  भी गिला  है 
ख़ुदा बन के  बेहद  ही  पछताए  हैं  हम 

ज़रा  सा   रुको   फिर   नई   चोट  देना 
अभी  तो  ज़रा सा  संभल  पाए  हैं  हम 

बुरे  से  बुरा  जो  भी   होना   है   हो  ले 
जो सबसे बुरा था  वो  सह  आए  हैं  हम 

दीप्ति मिश्र 

  


Friday 19 February 2010

BEHAD BECHAENI HAI

ग़ज़ल 

बेहद   बेचैनी   है   लेकिन   मक़सद  ज़ाहिर  कुछ   भी  नहीं 
पाना - खोना, हँसना - रोना  क्या  है  आख़िर  कुछ भी नहीं  

अपनी - अपनी   क़िस्मत  सबकी, अपना- अपना  हिस्सा है 
जिस्म की ख़ातिर लाखों सामां,रूह की ख़ातिर कुछ भी नहीं 

उसकी   बाज़ी , उसके   मोहरे , उसकी  चालें , उसकी  जीत
उसके  आगे  सारे  शातिर  ,माहिर , क़ादिर  कुछ  भी   नहीं  

उसका   होना   या    ना   होना ,  ख़ुद  में   ज़ाहिर  होता   है 
गर  वो   है  तो  भीतर  ही  है  वरना  बज़ाहिर  कुछ भी  नहीं 

दुनिया  से   जो  पाया   उसने   दुनिया  ही   को  सौंप  दिया 
ग़ज़लें-नज़्में  दुनिया  की  हैं  क्या  है  शाइर  कुछ  भी  नहीं 

दीप्ति मिश्र 

Saturday 23 January 2010

HAM BURE HAIN


ग़ज़ल
हम  बुरे  हैं  अगर तो  बुरे  ही भले ,अच्छा  बनने  का कोई  इरादा  नहीं
साथ लिक्खा है तो साथ निभ जाएगा ,अब निभाने का कोई भी वादा नहीं

क्या सही  क्या ग़लत  सोच का फेर है ,एक नज़रिया है जो बदलता भी है
एक सिक्के  के दो पहलुओं  की तरह  फ़र्क  सच-झूठ में कुछ ज़ियादा नहीं

रूह का रुख़ इध जिस्म का रुख़ उधर अब ये दोनों मिले तो मिलें किसतरह
 रूह   से  जिस्म तक  जिस्म  से रूह  तक रास्ता एक भी सीधा-सादा नहीं   

जो  भी  समझे  समझता रहे ये जहाँ,अपने  जीने  का  अपना  ही अंदाज़ है
हम  बुरे  या  भले  जो  भी  हैं  वो  ही  हैं ,हमनें  ओढ़ा है  कोई  लबादा नहीं

ज़िन्दगी अब तू ही कर कोई फ़ैसल ,अपनी शर्तों पे जीने की क्या है सज़ा
       तेरे  हर रूप को हौसले  से  जिया पर  कभी  बोझ सा  तुझको  लादा  नहीं                       

दीप्ति मिश्र 
6.12.2000 - 27.8.2000 

Monday 21 December 2009

TUMHE KISNE

ग़ज़ल 


तम्हें   किसने   कहा  था , तुम  मुझे  चाहो  बताओ  तो 
जो दम भरते हो चाहत का ,तो फिर उसको निभाओ तो 

दिए  जाते  हो  ये  धमकी ,गया  तो  फिर  न  आऊँगा  
कहाँ   से   आओगे  पहले  मेरी  दुनिया  से   जाओ  तो

मेरी  चाहत भी है  तुमको और अपना घर भी प्यारा है 
निपट लूँगी मैं हर ग़म से , तुम अपना घर बचाओ तो 

तुम्हारे   सच    की   सच्चाई   पे   मैं   क़ुर्बान  हो  जाऊँ
पर अपना सच बयां  करने की तुम हिम्मत जुटाओ तो 

फ़क़त   इन   बद्दुआओं    से  , बुरा   मेरा  कहाँ  होगा 
मुझे   बर्बाद   करने    का   ज़रा   बीड़ा   उठाओ   तो 

दीप्ति मिश्र   

JISSE TUMNE KHUD KO DEKHA

ग़ज़ल

जिससे तुमने ख़ुद  को देखा ,हम वो  एक  नज़रिया  थे 
हम से ही अब क़तरा हो तुम ,हम से ही तुम  दरिया  थे 

सारा  - का - सारा  खारापन    हमने  तुम से   पाया   है 
तुमसे  मिलने से पहले तो , हम एक मीठा दरिया  थे 

मखमल की ख्वहिश थी तुमको ,साथ भला कैसे निभता
हम   तो  संत  कबीरा  की  झीनी  सी  एक  चदरिया  थे 

अब समझे ,क्यों हर चमकीले रंग से मन  हट जाता  था 
बात असल में  ये  थी ,  हम  ही  सीरत  से  केसरिया  थे

जोग  लिया  फिर  ज़हर पीया , मीरा सचमुच दीवानी थी 
तुम  अपनी  पत्नी, गोपी  और   राधा  के   सांवरिया   थे 

दीप्ति मिश्र 

WO EK DARD JO

ग़ज़ल 


वो एक दर्द जो मेरा  भी  है , तुम्हारा  भी
वही  सज़ा  है  मगर  है  वही  सहारा  भी

तेरे  बग़ैर  कोई  पल   गुज़र  नहीं   पाता
तेरे  बग़ैर  ही  इक  उम्र   को  गुज़ारा  भी 

तुम्हारे   साथ   कभी   जिसने  बेवफ़ाई  की
किसी तरह न हुआ फिर वो दिल हमारा भी

तेरे  सिवा  न  कोई    मुझसे  जीत पाया था 
तुझी  से  मात   मिली  है  मुझे  दुबारा   भी 

अभी - अभी  तो जली हूँ , अभी न  छेड़ मुझे 
अभी  तो   राख   में  होगा  कोई   शरारा  भी

दीप्ति मिश्र

Friday 18 December 2009

WO NAHEN MERA MAGAR


ग़ज़ल

 वो   नहीं   मेरा  मगर  उस्से  मुहब्बत   है  तो  है
 ये  अगर रस्मों -  रिवाजों  से  बग़ावत  है  तो  है

   सच को मैने सच कहा,जब कह दिया तो कह दिया
   अब  ज़माने  की  नज़र  में  ये   हिमाक़त है तो  है 

     जल  गया परवाना  गर तो  क्या  ख़ता है शम्मा की
     रात भर जलना- जलाना उसकी  क़िस्मत  है  तो  है 

       दोस्त   बन   कर  दुश्मनों  सा  वो   सताता   है   मुझे   
       फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है
 
     कब  कहा  मैनें की वो  मिल जाए  मुझको , मैं  उसे 
      ग़ैर   ना  हो  जाए  वो  बस  इतनी  हसरत है  तो  है 

  दूर  थे  और   दूर  हैं  हर   दम  ज़मीनो  - आसमाँ
   दूरियों  के  बाद  भी   दोनों   में   क़ुर्बत   है  तो  है

दीप्ती मिश्र