बेहद बेचैनी है लेकिन मक़सद ज़ाहिर कुछ भी नहीं
पाना - खोना, हँसना - रोना क्या है आख़िर कुछ भी नहीं
अपनी - अपनी क़िस्मत सबकी, अपना- अपना हिस्सा है
जिस्म की ख़ातिर लाखों सामां,रूह की ख़ातिर कुछ भी नहीं
उसकी बाज़ी , उसके मोहरे , उसकी चालें , उसकी जीत
उसके आगे सारे शातिर ,माहिर , क़ादिर कुछ भी नहीं
उसका होना या ना होना , ख़ुद में ज़ाहिर होता है
गर वो है तो भीतर ही है वरना बज़ाहिर कुछ भी नहीं
दुनिया से जो पाया उसने दुनिया ही को सौंप दिया
ग़ज़लें-नज़्में दुनिया की हैं क्या है शाइर कुछ भी नहीं
दीप्ति मिश्र
1 comment:
Ek achhi ghazal ke liye badhai.Bahut dinon se soch raha tha likhne ke liye par suyog aaj ban paaya hai.Kabhi deehwara.blogspot.com padh kar dekhiyega.
rajanikant,saharanpur
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