Showing posts with label कविता ( है तो है ) 15.4.2002. Show all posts
Showing posts with label कविता ( है तो है ) 15.4.2002. Show all posts

Sunday 11 July 2010

गन्तव्य




शांत,शीत श्वेत,
सघन -शिखर पर 
स्थित थी वो !
निर्विकार ! निर्विचार !
जानें किसनें उसे बता दिया -
उसके जीवन का सार है -
"सागर" !

 शांत चित्त उद्वेलित हुआ
विचार और विकार की ऊष्मा पा-
पिघलने लगी बर्फ़ की चट्टान !
जन्मी एक आस 
उपजा एक विश्वास
ज्ञात हुआ एक लक्ष-
सागर ! सागर ! सागर !
उसे सागर तक जाना था 
सागर को पाना था 
सागर हो जाना था !!

बहुत रोका गया ,
टोका  गया  उसे की-
शिखर से धरा तक और 
धरा से अतल गहराइयों तक 
झुकते चले जाने की यात्रा 
बहुत कष्टप्रद , बहुत कठोर ,
बहुत जटिल , बहुत दुरूह है!

पर उसे तो लौ लगी थी 
बस अपनें "सागर" की !
उसका गन्तव्य था "सागर"!
उसका सत्य था "सागर"!
उसका सर्वस्व था "सागर"!

बस फिर क्या था-
पूर्ण आत्म-विश्वास
और आस्था बटोर
बह चली -
हरहराती,मदमाती
लहराती,बलखाती
अपनी धुन में मस्त !

हरियाली बिखेरती,
प्यासों की प्यास बुझाती
तपतों का ताप मिटाती
बहती जाती निर्बाध गति से
नन्ही सी जलधार
सागर को पानें
बिना ये जाने
की सागर कहाँ है ?

राह में मिला उसे
 एक जल-प्रपात
धारा नें पूछा-
क्या तुम सागर हो ?
जल-प्रापात नें कहा-
नहीं मैं सागर नहीं हूँ  ,
सागर होना चाहता हूँ !
सुना है --
बहुत दुरूह है सागर होना
भय लगता है मुझे ,
सागर तक पहुँचने से पहले ही
कहीं सूख ना जाऊं !
इसी लिए -
यात्रा आरंभ नहीं कर पाता
और जहाँ का तहां खड़ा हूँ !
क्या तुम मेरी मदद करोगी ?

निर्भय हठी और
 आत्मविश्वासी जल-धारा  नें
पल भर कुछ सोचा ,
फिर कहा -चलो मेरे साथ !
कुछ छण पश्चात् -
जल-प्रापात कहीं नहीं था
नन्ही -सी जलधार विस्तृत हो -
"नदी" बन चुकी थी !

अबाध गति से बढ़ रही थी वो
सागर को पानें
बिना ये जानें
की सागर कहाँ है ?
सो कभी भी ,कहीं भी
किसी भी मोड़ पर 
 मुड़ जाती थी
ये सोच कर की -
शायद सागर यहाँ हो !
हर मोड़ , हर गाम , हर ठौर
उसे मिला-
 एक और जल
एक और धारा
एक और झरना
एक और नद
एक और त्वरा
एक और उद्वेग
एक और उफान
सब के सब सागर की खोज में थे
एक-एक कर 
सब समाहित होते गए उसमें और
बढ़ता चला गया
नन्ही सी नदी का विस्तार !

बहते-बहते रुक गई है वो,
थम गई है वो !
 नहीं ,थकी नहीं है 
किन्तु जहाँ पहुँच गई है -
उसके आगे कुछ शेष नहीं !
अपने चारों ओर बह-बह कर
लौटना पड़ता है उसे बार-बार स्वयं में !
बहुत गहरी बहुत विस्तृत,बहुत स्थिर
   किन्तु बहत बेचैन है वो !
बार-बार पूछती है --
सागर कहाँ है ?
सागर कहाँ है ?
कहाँ है सागर ?

???

कोई उसे बता क्यों नहीं देता --
वो सागर हो गई है !!
वो सागर हो गई है !!

दीप्ति मिश्र