अक्सर मुझे टोंकते हैं ,
कहते हैं ---
सूर्यास्त मत देखा करो ,
अपशकुन होता है !
सब चढ़ते सूरज को
प्रणाम करते हैं !
लेकिन मुझे --
तुम्हारा "डूबना" अच्छा लगता है ,
क्योंकि मैं तुम्हारे प्रकाश को नहीं ,
"तुम्हे"देखना चाहती हूँ !!
तुम्हे अनुभूत करना चाहती हूँ !!!
वैसे तुम उगते हुए भी
बहुत प्यारे लगते हो !
नवजात शिशु- सी
तुम्हारी "रक्तिम आभा"
नेत्रों में ज्योति भर देती है ,
लेकिन यह स्थिति -
अधिक देर तक नहीं रहती -
धीरे-धीरे तुम्हारे प्रकाश से
सारा संसार जगमगा उठता है !
तब तुम ऐसे तेजस्वी राजा के
सामान होते हो --
जो अपने ही ताप से
तमतमा उठा हो !
तुम्हारे जगर-मगर प्रकाश में
सृष्टि की एक-एक संरचना ,
स्पष्ट रूप से दिखाई देती है ,
किन्तु मैं तुम्हे नहीं देख पाती
मेरी आँखें चौंधिया जाती हैं !!
दिन भर अपने ही ताप से
तपते हुए तुम
जब संध्याकाल में
विश्राम करते हो
तब तुम्हारा सुनहरा वेष
जोगिया हो जाता है !
ऐसा प्रतीत होता है
जैसे कहीं एकांत में
कोई साधू समाधिस्थ हो
डूबता जा रहा हो
ध्यान की गहराइयों में !!
ऐसे में -
सागर किनारे बैठ कर
जी भर कर देखती हूँ मैं तुम्हें
दूर क्षितिज में
और
धीरे-धीरे ---
धीरे-धीरे ---
डूबती जाती हूँ -
तुम्हारे साथ
तुम्हारे ध्यान की
गहराइयों में !!
दीप्ति मिश्र
1 comment:
very nice. even i like the sun set. it has a different serenity, a charm. gives me a feeling of maturity, of having lived and passing elegantly.
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