Wednesday, 2 March 2016
फेसबुक Facebook
सुनो !
ये मेरा दिल है
तुम्हारा फेसबुक अकाउंट Facebook account नहीं ,
कि जब चाहा लौगइन login किया
और जब चाहा लौगआउट logout हो गए
पहले तो-
फ्रेंड रिक्वेस्ट friend request भेज-भेज कर
नाक में दम कर दी ।
अब-जब एक्सेप्ट accept कर ली
तो कहते हो -
अन्फ्रेंड unfriend
कर दो..
सिर्फ इस लिए
कि मैं तुम्हारे स्टेटस अपडेट्स status update को
लाइक likeनहीं
करती।
तुम्हारी पोस्ट post को
शेयर share
नहीं करती।
अपनी वॉल wall
पर लिखने की परमीशन नहीं देती।
क्या होगा अन्फ्रेंड unfriend करने से ?
दिल से जाओगे नहीं तुम..!
फिर क्या करूँ ...?
एक आइडिया है -
क्यों न मैं तुम्हें
सीधे ब्लॉक block
ही कर दूँ
हर दिशा,हर
जगह से
ठीक है न ?
बोलो
है न ठीक !!
24.10.2015
1.55pm
दृश्य
चलती हुई रेल की खिड़की से
गतिमान दृश्यों को देख कर -
याद आ जाते हैं वो लोग -
जो आपकी ज़िन्दगीें में -
अचानक आ जाते हैं ..!
जाने के लिए ...!
ये आते तो तपाक से हैं
लेकिन
जाते - जाते
ऐसी
अमिट छाप छोड़ जाते हैं
कि
लाख चाहने पर भी
नहीं
मिटा पाते आप ...
बस
देखते रह जाते हैं
उन्हें
आखों से ओझल होते हुए
बेबस
!! चुपचाप !!!
12.17pm
8.11.2015
सुविधा
एक्सप्रेस
कॉपी - पेस्ट
हम दोनों पीठ से पीठ जोड़े
अपना-अपना
टैब लिए बैठे थे
आपस
में बातें हो रहीं थीं
और
टैब पर चैट !
अचानक
वो उठा -
और
हाथ धोने लगा ...
मैनें पूछा - क्या हुआ ?
उसने
मुझे तो जवाब नहीं दिया
मन
ही मन बुदबुदाया ..
छूटता
ही नहीं ..!!
मैनें
झाल्ला कर पूछा -
क्या
नहीं छूटता ?
हुआ
क्या है ?
उसने पलट कर कहा -
कॉपी
- पेस्ट करती हो ?
हाँ
करती हूँ क्यों ?
मैनें
कुछ कॉपी किया था
पेस्ट
नहीं कर सका ...!!
उसने
कहा ।
तो ? तो क्या हुआ ?
मैनें
भनभनाते हुए पूछा
उसने
कहा -
ऐसा
लग रहा है जैसे...
ऊँगली
में ही चिपक के रह गया है
छूटता
ही नहीं !!
.......
पता
नहीं उसने क्या समझा ?
क्या
जाना ?
मुझे
एक बात
अच्छी
तरह समझ में आ गई
कि
कॉपी से पहले
पेस्ट
की जगह निश्चित होनी चाहिए
वर्ना....
कॉपी
ज़हन पर पेस्ट हो जाती है !!!
18.7.2015
1.26 am
अजनबी
अजनबी !
जब तुम
अजनबी थे
तब -
तुम्हारी
एक-एक बात में
कितना
अपनापन था !
सहमे-सहमे
संवाद...
टूटे-टूटे
वाक्य...
अटके-अटके
शब्द...
असहज हो कर
भी
कितने सहज
थे !
वो
बिंदु-बिंदु से बनी रेख...
वो शब्दों
के मध्य का
रिक्त स्थान
!
वो अल्प और
पूर्ण विराम !
कितने सरल,कितने निर्मल
और कितने
मुखर थे !!
और अब -
जब तुम
अजनबी नहीं हो
तब -
तुम्हारे
मोतियों जैसे शब्द,
तुम्हारी
गठी हुई भाषा,
तुम्हारा
साधा हुआ लहजा
अच्छा है,बहुत अच्छा !
लेकिन -
मेरा वो
"अपनापन" कहाँ है ?
कहाँ है -
वो सहजता ?
वो सरलता ?
वो निर्मलता
?
सुनो !
तुम तब
अजनबी थे
या अब ?
छोड़ो जाने
दो ..
क्या फ़र्क़
पड़ता है
अजनबी तो
अजनबी ठहरा
फिर क्या
"तब"
और
क्या
"अब" !!!
17.6.2015
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