Wednesday 2 March 2016

दृश्य



चलती हुई रेल की खिड़की से
गतिमान दृश्यों को देख कर -
याद आ जाते हैं वो लोग - 
जो आपकी ज़िन्दगीें में -
अचानक आ जाते हैं ..!
जाने के लिए ...!

ये आते तो तपाक से हैं
लेकिन जाते - जाते
ऐसी अमिट छाप छोड़ जाते हैं
कि लाख चाहने पर भी
नहीं मिटा पाते आप ...
बस देखते रह जाते हैं 
उन्हें आखों से ओझल होते हुए
बेबस !! चुपचाप !!!


12.17pm
8.11.2015
सुविधा एक्सप्रेस

दिल



जितना सीने की कोशिश करती हूँ
उतना ही टूटते जाते हैं टाँके....
अब तो जगह ही नहीं रही ...
कहाँ सुई की नोक धरूँ ?
कहाँ गाँठ बान्धूँ ?
कुछ बचा ही नहीं...
क्या करूँ इस छलनी का ???

16.12.2015
9.46pm

कॉपी - पेस्ट




हम दोनों पीठ से पीठ जोड़े
अपना-अपना टैब लिए बैठे थे
आपस में बातें हो रहीं थीं
और टैब पर चैट !
अचानक वो उठा -
और हाथ धोने लगा ...

मैनें पूछा - क्या हुआ ?
उसने मुझे तो जवाब नहीं दिया
मन ही मन बुदबुदाया ..
छूटता ही नहीं ..!!
मैनें झाल्ला कर पूछा -
क्या नहीं छूटता ?
हुआ क्या है ?

उसने पलट कर कहा -
कॉपी - पेस्ट करती हो ?
हाँ करती हूँ क्यों ?
मैनें कुछ कॉपी किया था 
पेस्ट नहीं कर सका ...!!
उसने कहा ।

तो ? तो क्या हुआ ?
मैनें भनभनाते हुए पूछा
उसने कहा -
ऐसा लग रहा है जैसे...
ऊँगली में ही चिपक के रह गया है
छूटता ही नहीं !!
.......
पता नहीं उसने क्या समझा ?
क्या जाना ?
मुझे एक बात 
अच्छी तरह समझ में आ गई 
कि कॉपी से पहले 
पेस्ट की जगह निश्चित होनी चाहिए
वर्ना....
कॉपी ज़हन पर पेस्ट हो जाती है !!!

18.7.2015
1.26 am

कम्यूनीकेशन गैप



बहुत बातूनी थे दोनों,
बड़ी लम्बी-लम्बी बातें..
घंटो बतियाते थे -
न दिन देखते न रात !
हज़ारों सवाल - हज़ारों जवाब
सावल वो -
जिनका जवाब नदारद!
जवाब वो -
जिनका सवाल ही न था!
एक दिन -
एक ने सही सवाल का 
सही जवाब दे दिया ...
अब दोनों चुप हैं
और सोच रहे हैं..
क्यों आ गया हमारे बीच 
कम्यूनीकेशन गैप !!

13.2015

अजनबी



अजनबी !
जब तुम अजनबी थे 
तब -
तुम्हारी एक-एक बात में
कितना अपनापन था !
सहमे-सहमे संवाद...
टूटे-टूटे वाक्य...
अटके-अटके शब्द...
असहज हो कर भी 
कितने सहज थे !
वो बिंदु-बिंदु से बनी रेख...
वो शब्दों के मध्य का 
रिक्त स्थान !
वो अल्प और पूर्ण विराम !
कितने सरल,कितने निर्मल
और कितने मुखर थे !!

और अब - 
जब तुम अजनबी नहीं हो
तब -
तुम्हारे मोतियों जैसे शब्द,
तुम्हारी गठी हुई भाषा,
तुम्हारा साधा हुआ लहजा
अच्छा है,बहुत अच्छा !
लेकिन -
मेरा वो "अपनापन" कहाँ है ?
कहाँ है -
वो सहजता ?
वो सरलता ?
वो निर्मलता ?

सुनो !
तुम तब अजनबी थे
या अब ?
छोड़ो जाने दो ..
क्या फ़र्क़ पड़ता है
अजनबी तो अजनबी ठहरा 
फिर क्या "तब"
और
क्या "अब" !!!


17.6.2015


अक्स


अक्स


बहुत देर से कह रहे थे तुम
तुम्हारा आइना हूँ मैं
देखो मुझे !मैंने तुम्हारे भीतर झाँक के देखा
और चटाक से चटक कर बिखर गए तुम
मेरे चारों ओर ....!एक अकेली मैं
और इतने सारे अक्स !!
तुम्ही बताओ...
कैसे समेटूँ तुम्हें !!!

24.11.2015
12.36pm

छलिया


छलिया

प्रेम में छली जाने वाली हर स्त्री का
 एक नाम होता है जैसे -
रुकमणी, सुभद्रा, अनुराधा, मीरा
 या फिर राधा !
लेकिन छलने वाले पुरुष का 
पुरुष होना भर यथेष्ट होता है
वो तो अवतरित होता है 
सिर्फ़ ज्ञान देने के लिये
वो बाँसुरी बजाता है ...
रास रचाता है ...
और फिर ....समा जाता है ...
अपनी गीता में !!
है न छलिया !!!!


23.12.2015
12.pm