Monday 21 December 2009

TUMHE KISNE

ग़ज़ल 


तम्हें   किसने   कहा  था , तुम  मुझे  चाहो  बताओ  तो 
जो दम भरते हो चाहत का ,तो फिर उसको निभाओ तो 

दिए  जाते  हो  ये  धमकी ,गया  तो  फिर  न  आऊँगा  
कहाँ   से   आओगे  पहले  मेरी  दुनिया  से   जाओ  तो

मेरी  चाहत भी है  तुमको और अपना घर भी प्यारा है 
निपट लूँगी मैं हर ग़म से , तुम अपना घर बचाओ तो 

तुम्हारे   सच    की   सच्चाई   पे   मैं   क़ुर्बान  हो  जाऊँ
पर अपना सच बयां  करने की तुम हिम्मत जुटाओ तो 

फ़क़त   इन   बद्दुआओं    से  , बुरा   मेरा  कहाँ  होगा 
मुझे   बर्बाद   करने    का   ज़रा   बीड़ा   उठाओ   तो 

दीप्ति मिश्र   

सोचती हूँ कि मैं



सोचती  हूँ  कि   मैं   सोचना  छोड़   दूँ 
या तो  फिर  सोच की  सब  हदें तोड़ दूँ 

जिस  तरफ़  एक  तूफ़ान  उठने  को  है 
उस तरफ़ अपनी कश्ती का रुख़ मोड़ दूँ 

गर मुहब्बत न  रिश्तों  की  मोहताज  हो 
सारे    रिश्ते    यहीं - के - यहीं   तोड़   दूँ

टूट  कर  चाहने  का   मैं  क्या  दूँ  सिला 
तुम   मुझे  तोड़  दो,   मैं   तुम्हे  जोड़  दूँ

मुझ से आजिज़ हैं सब ,ख़ुद से आजिज़ हूँ मैं 
क्या    करूँ   ख़ुद  को  मैं  अब  कहाँ  छोड़  दूँ

दीप्ति मिश्र 

JISSE TUMNE KHUD KO DEKHA

ग़ज़ल

जिससे तुमने ख़ुद  को देखा ,हम वो  एक  नज़रिया  थे 
हम से ही अब क़तरा हो तुम ,हम से ही तुम  दरिया  थे 

सारा  - का - सारा  खारापन    हमने  तुम से   पाया   है 
तुमसे  मिलने से पहले तो , हम एक मीठा दरिया  थे 

मखमल की ख्वहिश थी तुमको ,साथ भला कैसे निभता
हम   तो  संत  कबीरा  की  झीनी  सी  एक  चदरिया  थे 

अब समझे ,क्यों हर चमकीले रंग से मन  हट जाता  था 
बात असल में  ये  थी ,  हम  ही  सीरत  से  केसरिया  थे

जोग  लिया  फिर  ज़हर पीया , मीरा सचमुच दीवानी थी 
तुम  अपनी  पत्नी, गोपी  और   राधा  के   सांवरिया   थे 

दीप्ति मिश्र 

WO EK DARD JO

ग़ज़ल 


वो एक दर्द जो मेरा  भी  है , तुम्हारा  भी
वही  सज़ा  है  मगर  है  वही  सहारा  भी

तेरे  बग़ैर  कोई  पल   गुज़र  नहीं   पाता
तेरे  बग़ैर  ही  इक  उम्र   को  गुज़ारा  भी 

तुम्हारे   साथ   कभी   जिसने  बेवफ़ाई  की
किसी तरह न हुआ फिर वो दिल हमारा भी

तेरे  सिवा  न  कोई    मुझसे  जीत पाया था 
तुझी  से  मात   मिली  है  मुझे  दुबारा   भी 

अभी - अभी  तो जली हूँ , अभी न  छेड़ मुझे 
अभी  तो   राख   में  होगा  कोई   शरारा  भी

दीप्ति मिश्र

Sunday 20 December 2009

SOCH

सोच

तुम्हारी 'सोच' पर
न तो मेरा अख्तियार था न हक़ !
फिर क्यों तुमने उम्मीद जगा दी
कि तुम भी मेरी तरह सोचोगे  ?

तुमने जताया था,
तुमने बताया था,
तुमने दिखाया था
कि तुम औरों से अलग हो
ठीक मेरी तरह  !!

जानती थी मैं
कि सब छलावा है ! दिखावा है !
मगर फिर भी यक़ीन कर बैठी !
जानते हो क्यों ?
क्यों कि तुम्हारे जुनून की कशिश
मुझे भा गई थी !!

धीरे-धीरे हम क़रीब आते गए
इतने क़रीब कि न चाहते हुए भी
मुझे वो सब नज़र आने लगा
जिसे तुमने बड़े क़रीने से
खुद से भी छुपा रक्खा था !

मैं कब तक आँखें बंद रखती ?
मैनें आँखें खोल दीं ---
और तुम रू-ब-रू हो गए
अपनी हक़ीक़त से !!

मैंने कुछ नहीं जताया
मैंने  कुछ नहीं बताया
मैंने  कुछ नहीं दिखाया

फिर किसलिए -
आज मेरे अख्तियार में है
तुम्हारी 'सोच'
और मुठ्ठी  में है
तुम्हारा पूरा का पूरा
'वुजूद' !!!

दीप्ति मिश्र 

Friday 18 December 2009

WO NAHEN MERA MAGAR


ग़ज़ल

 वो   नहीं   मेरा  मगर  उस्से  मुहब्बत   है  तो  है
 ये  अगर रस्मों -  रिवाजों  से  बग़ावत  है  तो  है

   सच को मैने सच कहा,जब कह दिया तो कह दिया
   अब  ज़माने  की  नज़र  में  ये   हिमाक़त है तो  है 

     जल  गया परवाना  गर तो  क्या  ख़ता है शम्मा की
     रात भर जलना- जलाना उसकी  क़िस्मत  है  तो  है 

       दोस्त   बन   कर  दुश्मनों  सा  वो   सताता   है   मुझे   
       फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है
 
     कब  कहा  मैनें की वो  मिल जाए  मुझको , मैं  उसे 
      ग़ैर   ना  हो  जाए  वो  बस  इतनी  हसरत है  तो  है 

  दूर  थे  और   दूर  हैं  हर   दम  ज़मीनो  - आसमाँ
   दूरियों  के  बाद  भी   दोनों   में   क़ुर्बत   है  तो  है

दीप्ती मिश्र  

Tuesday 15 December 2009

KITAAB


किताब



किताबें पढ़ना मेरी पुरानी आदत है
शायद  इसीलिए --
जीवन में आने वाले हर व्यक्ति को 
किताब की तरह बाँच डालती हूँ


कोई "उपन्यास", कोई "कहानी",
कोई "कविता" तो कोई "छणिका" 
के रूप में होता है !

कोई "महीनों", कोई "हफ़्तों",
कोई "घंटों" तो कोई "क्षण" भर  को
मेरे मानस को उद्वेलित करता है !


कोई साहित्यिक धरोहर-सा 
मेरे मन के किताबघर में 
सहेज लिया जाता है 
तो कोई अश्लील पुस्तक-सा 
फाडकर हवा में उड़ा दिया जाता है !


लेकिन फिर भी --
कुछ निरर्थक नहीं होता 
"बुरा" ,"गन्दा" ,"अशलील"
सब सार्थक हैं  !
इन्हीं के परिपेक्ष में 
'अच्छा","स्वच्छ" और शिष्ट 
उजागर होता है 
और मेरे व्यक्तित्व में 
एक नया निखार आता है !


लेकिन अब मैं --
इन किताबों को पढ़ते -पढ़ते 
उकता गई हूँ !
सभी कहानियाँ 
एक ही सी तो होती हैं !
खूबसूरत जिल्द में मढ़ी हों 
या फुटपाथ पर पड़ी हों 
क्या फर्क पड़ता है ?
सार तो सबका एक ही है !
कहीं लेखक बड़ा तो शब्द छोटे 
कहीं शब्दों में सार 
तो व्यक्तित्व तार-तार !!


अजीब घाल-मेल है ,
सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया है
किताबें  तो पूरी हैं 
पर कहानियाँ अधूरी !!


बस इसीलिए --
अब मैं लोगों को 
किताबों की तरह नहीं पढ़ती ,
उन्हें पूरी तरह समझने की 
कोशिश नही करती ,
जब जो पन्ना खुल जाता है ,
पढ़ लेती हूँ ,समझ लेती हूँ ,
बन्द अध्याय को 
बन्द  ही रहने देती हूँ 
 ताकि --
पढ़ने का चाव बना रहे 
कुछ नया होने का भ्रम 
बचा रहे !!!!


दीप्ति मिश्र