Thursday 11 April 2013

अपने काँधे पर


ग़ज़ल  



अपने काधें पर सर रख  कर खुद ही थपकी दे लेते हैं
याद हमें अब  कौन  करेगा खुद ही हिचकी ले लेते हैं

मझधारों में नाव  चलाना  कोई मुश्किल काम नहीं है
सूखी  रेती  में भी अब तो अपनी नईय्या  खे लेते हैं

 देखें  घाव  भरें  हैं कितने  जब भी मन में ये आता है
नाम तभी तेरा मन ही मन चुपके से हम ले   लेते  हैं

ख़ैर-ख़बर  मेरी तुम  लोगे अब  तो ये भी आस नहीं है
खु़द को चिट्ठी लिख  कर अब तो खु़द ही उत्तर दे लेते हैं

अच्छा है जो खुल ही गयी ये मुट्ठी जो थी बन्द अभी तक
खा़ली  हाथ  हवा में  उठ  कर आज  दुआएँ  दे  लेते हैं

इस छोटी सी दुनिया में तुम शायद फिर से मिल जाओगे
सोच   के कुछ  ऐसी ही बातें दिल को तसल्ली दे लेते हैं

दीप्ति मिश्र 
4.5.95 - 2.6.95


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