Thursday 11 April 2013

हम न मानेगें


ग़ज़ल  


हम न मानेगें  हमें अब शौक़  से  इलज़ाम  दें
क्या ज़रूरी है कि हर रिश्ते को हम इक नाम दें

सिसिला  चलता  रहे बस इस तरह ही उम्र भर
क्या ज़रूरी है कि  हर आग़ाज़  को अंजाम  दें

है निहायत  ही  निजी पाकीज़गी  हर  एक की
क्या  ज़रूरी है सफ़ा  इसकी  सुबहो  शाम  दें

गल्तियाँ   हसे  हुईं  आख़िर  तो हम इन्सान हैं
क्या  ज़रूरी है कि मजबूरी  का उनको  नाम  दें

खीच कर ले आएगी अपनी कशिश उस शख्स़ को
क्या  ज़रूरी  है  उसे  हर  बार  हम  पैग़ाम  दें

बिन  ख़रीदे  ही  हमें  खु़शियाँ मिलें ऐसा भी हो
क्या ज़रूर है कि  उनका हम  सदा  ही दाम  दें

दीप्ति मिश्र
20.1.95 - 27.1 95 

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