Monday, 9 September 2013
Wednesday, 21 August 2013
Monday, 15 April 2013
Friday, 12 April 2013
आखिर मेरी वफ़ाओं का
आखि़र   मेरी  वफ़ाओं  का  कुछ  तो सिला मिला
उसको  भी  आज   दोस्त   कोई   बेवफ़ा   मिला 
कहते  थे  लोग  हमसे   ये   दुनिया   फ़रेब   है 
हमको  तो  रास्ते  में  ही   इक  रहनुमा   मिला 
दो पल के तेरे  साथ  ने  क्या  कुछ   नहीं  दिया 
बस ये समझ कि तुझ में ही
सब कुछ छिपा  मिला 
मेरा   नहीं   था  तू  मुझे  मिलना  तुझी  से  था 
लुक-छुप के  खेल में  मेरी
कि़स्मत को क्या  मिला 
बढ़कर  खु़दा  से  क्यों   न  मैं  पूजूँ  तुझे   बता 
जब उसकी  जगह तू  मुझे  बन  कर  खु़दा  मिला 
दीप्ति मिश्र
8.2.95 -14.3.95
दीप्ति मिश्र
8.2.95 -14.3.95
दिल की धडकन
 ग़ज़ल 
दिल की धड़कन की  सुनी
आवाज़ तुमने कब कहो 
जान  कर बनते  रहे अनजान  क्यों तुम अब कहो 
लफ़्ज़  मेरा  एक  भी तुम तक  पहुँच पाया  नहीं 
चुप से  मेरी हो  गए  बेचैन
क्यों तुम  अब  कहो 
तुमसे  हमने  सीख ली है
कुछ न  कहने  की अदा 
कह सके ना तुम कभी जो,
आज तुम वो सब कहो 
आज़मा   कर  क्या   करोगे  देखना  पछताओगे 
जाँ  हथेली   पर  लिए  हैं
,वार  देगें  जब  कहो 
किस  लिए  झूठी  तसल्ली  ,किस लिए वादा नया 
आ गया  हमको यकीं गर क्या  करोगे  तब  कहो 
दीप्ति मिश्र
26.4.95 - 1.5.95
दीप्ति मिश्र
26.4.95 - 1.5.95
क्या बतलाएं
ग़ज़ल 
क्या बतलाएं किसके दिल
में क्या-क्या राज़ छुपा देखा  है 
हर  इन्सां  के  दिल में हमनें इक  तूफ़ान रुका देखा  है 
तूफ़ां  से जो  जा टकराया
,मात कभी ना  खाई  जिसने 
वक्त़ के आगे उसका सर भी
हमनें  आज झुका देखा  है 
मुट्ठी  से  रेती सा सरका  हर पल  जो था  साथ गुज़ारा 
जबसे  बिछड़े  वक्त़  वहीं
पर  सुबहो-शाम रुका देखा है 
भूला  भटका  सा  दीवाना लोग जिसे पागल  कहते  थे 
बस  उसके  ही दिल में
हमनें  इक मासूम छुपा देखा है
कैसा  सीधा-साधा  था वो
,बच्चों  सा भोला  दिखता था 
वक्त़  के  हाथो  टूटा होगा
,उसके हाथ  छुरा  देखा  है
दीप्ति मिश्र
12.4.95 - 28.4.95
दीप्ति मिश्र
12.4.95 - 28.4.95
Thursday, 11 April 2013
उम्र का हर साल
ग़ज़ल 
उम्र  का  हर  साल   बस   आता  रहा  जाता  रहा
ये  हमारे  बीच में अब कौन  सा नाता  रहा 
एक  मूरत  टूट  कर बिखरी
मेरे चारों  तरफ़ 
कैसी पूजा, क्या
इबादत,सब भरम  जाता रहा
जल  रहा  था  एक दीपक  रौशनी
के  वास्ते 
उसके तल पर ही मगर अँधियार
गहराता  रहा 
हम बने  सीढ़ी मगर  हर बार  पीछे ही  रहे 
रख  के हम पे पाँव वो  ऊचाइयाँ  पाता  रहा 
उम्र  के उस मोड़ पर हमको  मिलीं आज़ादियाँ 
कट चुके थे पंख जब उड़ने  का फ़न जाता रहा 
ज़िन्दगी  की  वेदना गीतों  में  मैनें  ढ़ाल  दी 
गीत मेरे  गै़र की धुन  में  ही  वो  गाता  रहा
दीप्ति मिश्र
20.4.95
दीप्ति मिश्र
20.4.95
अपने काँधे पर
ग़ज़ल
अपने काधें पर सर रख  कर
खुद ही थपकी दे लेते हैं 
याद हमें अब  कौन  करेगा खुद ही हिचकी ले लेते हैं 
मझधारों में नाव  चलाना  कोई मुश्किल काम नहीं है 
सूखी  रेती  में भी अब तो
अपनी नईय्या  खे लेते हैं 
 देखें  घाव  भरें  हैं कितने  जब भी मन में ये आता
है
नाम तभी तेरा मन ही मन
चुपके से हम ले   लेते  हैं 
ख़ैर-ख़बर  मेरी तुम  लोगे
अब  तो ये भी आस नहीं है 
खु़द को चिट्ठी लिख  कर
अब तो खु़द ही उत्तर दे लेते हैं 
अच्छा है जो खुल ही गयी
ये मुट्ठी जो थी बन्द अभी तक 
खा़ली  हाथ  हवा में  उठ  कर
आज  दुआएँ  दे  लेते हैं 
इस छोटी सी दुनिया में
तुम शायद फिर से मिल जाओगे 
सोच   के कुछ  ऐसी ही बातें दिल को तसल्ली दे लेते हैं 
दीप्ति मिश्र
4.5.95 - 2.6.95
दीप्ति मिश्र
4.5.95 - 2.6.95
दिल की बात
ग़ज़ल
 दिल  की  बात  ज़ुबां  तक  लाएं ये हमको मंज़ूर नहीं
उसको  रुसवा  कर दें ये  तो  चाहत का  दस्तूर  नहीं
समझा  कर  दीवाने  दिल को  सब्र किये  हम बैठे  हैं
लेकिन  तुमसे  ना मिल पाएं  इतने तो  मजबूर  नहीं
तोड़  के  सारी  रस्में  ऐसी  एक कहानी लिख दें हम
लैला - मजनू  के क़िस्से  भी  जितने थे मशहूर  नहीं
इस दूरी से शिक़वा क्या
जब दिल की दिल सुन लेता है
लाख  जुदा  हों जिस्म
हमारे  हम तो फिर भी दूर नहीं
बिसरा  कर हम इस दुनिया
को  अपनी धुन में रहते हैं
लेकिन  तुमको  ना  पहचानें  इतने  तो मग़रूर   नहीं  
दीप्ति मिश्र 
15.6.95 - 24.6.95
हम न मानेगें
ग़ज़ल
हम न मानेगें  हमें अब शौक़  से  इलज़ाम  दें
क्या ज़रूरी है कि हर
रिश्ते को हम इक नाम दें
सिसिला  चलता  रहे बस इस
तरह ही उम्र भर
क्या ज़रूरी है कि  हर आग़ाज़  को अंजाम  दें
है निहायत  ही  निजी
पाकीज़गी  हर  एक की
क्या  ज़रूरी है सफ़ा  इसकी  सुबहो  शाम  दें
गल्तियाँ   हसे  हुईं  आख़िर  तो हम इन्सान हैं
क्या  ज़रूरी है कि मजबूरी  का उनको  नाम  दें
खीच कर ले आएगी अपनी
कशिश उस शख्स़ को
क्या  ज़रूरी  है  उसे  हर  बार  हम  पैग़ाम  दें
बिन  ख़रीदे  ही  हमें  खु़शियाँ मिलें ऐसा भी हो
क्या ज़रूर है कि  उनका हम  सदा  ही दाम  दें
दीप्ति मिश्र
20.1.95 - 27.1 95 
दीप्ति मिश्र
20.1.95 - 27.1 95
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