आज से दस साल पहले
तुम मुझसे दस साल बड़े थे
लेकिन आज दस साल छोटे हो
क्योंकि
हम दोनों के प्रेम की परिभाषा
हम दोनों के प्रेम की परिभाषा
परिवर्तित हो गई है !!
दस साल पहले मेरा प्रेम--
निश्छल,सरल ,मासूम,खरा
और पारदर्शी था !!
तुम मिले तो लगा-
नदी को सागर मिल गया
मैं समर्पित हो गई !
तुमने मुझे स्वयं से विलग किया
तुमने मुझे स्वयं से विलग किया
और प्रेम का नया पाठ पढ़ाया
तुम बन गए गुरु और मैं शिष्या !
तुमने बताया कि--
प्रेम निश्छल ही नहीं छलिया भी है ,
सरल ही नहीं वक्रतापूर्ण भी है !
मासूम ही नहीं चतुर-चालाक भी है ,
खरा ही नहीं खोटा और मिश्रित भी है !
मात्र भावों का उद्रेक ही नहीं ,
मांसल देंह की क्षुधा भी है !
मैं समर्पित थी--
सो अपनी आस्था लिए --
धीरे-धीरे मोम-सी पिघलती गई
तुम्हारे सांचे में ढलती गई !
लेकिन आज
जब मैं तुम्हारे सामने
जब मैं तुम्हारे सामने
तुम्हारा प्रतिरूप बन कर खड़ी हूँ
तो बहुत भयभीत और
व्याकुल हो गए हो तुम !
समझ ही नहीं पा रहे कि क्यों
तुम्हे मेरा ये परिवर्तित रूप
तनिक भी नहीं भा रहा !!
मैं बताऊँ ये क्या है ?
ये वो दर्पण है --
जिसे तुम देखना नहीं चाहते !!
अपने विलास के लिए तुमनें
मुझे जो प्रेम का पाठ पढ़ाया था
उसे स्वयं नकारना चाहते हो तुम !!!
दरअसल हुआ ये कि--
परिवर्तन की इस पूरी प्रक्रिया में
अनायास ही मेरी आस्था नें
तुम्हें प्रेम की विशुद्धता का
अर्थ समझा दिया !!!!
आज मुझे तुम पर --
बहुत तरस आ रहा है
तुम मुझे उस नटखट
बच्चे के समान लग रहे हो
जिसने अपना सबसे प्यारा खिलौना
सिर्फ़ इस लिए तोड़ दिया
ताकि उससे कोई और ना खेल सके !!
रोते क्यों हो ?
मैं हूँ ना !!
आओ तुम्हारे आँसू पोंछ दूँ !!!!
दीप्ति मिश्र
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