Wednesday, 2 March 2016
अजनबी
अजनबी !
जब तुम
अजनबी थे
तब -
तुम्हारी
एक-एक बात में
कितना
अपनापन था !
सहमे-सहमे
संवाद...
टूटे-टूटे
वाक्य...
अटके-अटके
शब्द...
असहज हो कर
भी
कितने सहज
थे !
वो
बिंदु-बिंदु से बनी रेख...
वो शब्दों
के मध्य का
रिक्त स्थान
!
वो अल्प और
पूर्ण विराम !
कितने सरल,कितने निर्मल
और कितने
मुखर थे !!
और अब -
जब तुम
अजनबी नहीं हो
तब -
तुम्हारे
मोतियों जैसे शब्द,
तुम्हारी
गठी हुई भाषा,
तुम्हारा
साधा हुआ लहजा
अच्छा है,बहुत अच्छा !
लेकिन -
मेरा वो
"अपनापन" कहाँ है ?
कहाँ है -
वो सहजता ?
वो सरलता ?
वो निर्मलता
?
सुनो !
तुम तब
अजनबी थे
या अब ?
छोड़ो जाने
दो ..
क्या फ़र्क़
पड़ता है
अजनबी तो
अजनबी ठहरा
फिर क्या
"तब"
और
क्या
"अब" !!!
17.6.2015
छलिया
छलिया
प्रेम में छली जाने वाली हर स्त्री काएक नाम होता है जैसे -
रुकमणी, सुभद्रा, अनुराधा, मीरा
या फिर राधा !
लेकिन छलने वाले पुरुष का
पुरुष होना भर यथेष्ट होता है
वो तो अवतरित होता है
सिर्फ़ ज्ञान देने के लिये
वो बाँसुरी बजाता है ...
रास रचाता है ...
और फिर ....समा जाता है ...
अपनी गीता में !!
है न छलिया !!!!
23.12.2015
12.pm
Monday, 25 May 2015
तथास्तु
तथास्तु
एक थी -
प्रकृति की अद्वितीय देन.
रूप-लावण्य,कला-प्रज्ञा का अद्भुत समन्वय .
जीवन के सत्य को जानती थी वह.
जीवन-गति को पहचानती थी वह.
हर-हरा कर बह जाना चाहती वह
किसी पार्वती सरिता सी,
इस छोर से उस छोर तक.
औरचाहती थी -
निर्बाध,निःशंक, निःसीम निर्वाण.
भय उसकी प्रकृति में नहीं था ,
और हारना उसने सीखा न था.
महत्व्काक्षां और सामर्थ्य
दोनों ही पाए थे उसने.
अदम्य साहस की एकक्षत्र साम्राज्ञी थी वह.
सकारात्मक क्रियात्मकता का
अतुलनीय,अपरिमित प्रतिफलन,
एक पाषण-शिला को देख -
उद्वेलित हुआ भावुक ह्रदय ,
कल्पना ने स्वप्निल पंख पसारे,
करवट ली विचार-श्रंखला ने.
प्रेरित हो छेनी-हथौड़ी ले -
लगी तराशने हौले-हौले
कठोर पाषण-शिला को
वह कृत संकल्प नारी.
दिन् बीते, रातें बीतीं ..
अनवरत ,सतत, प्रयत्नशील
डूबी रही वह अपनी धुन में .
अथक परिश्रम रंग लाया
कल्पना का साकार रूप सामने आया.
अब बन गया था वह पाषण -
एक पुरुष ..
एक परिपुष्ट पुरुष !
विस्तृत ललाट पर,
खिंची हुई प्रत्यंचा -सी सघन भ्रू-रेख'
शांत,स्निग्ध,स्थिर,नेत्र,
सूती हुई नासिका पर उभरे सुद्र्ण नासापुट,
पीन,पुष्ट,वर्तुलाकार,अधरोष्ठ ,
तानी हुई ग्रीवा पर नुकीली चिबुक,
विशाल वक्षस्थल पर उभरी मांसल मस्पेशियाँ,
कठोर भुजमूलों पर दमकती स्फीत शिराएँ.
अंग-अंग से फूटा था पौरुष.
प्रतिमा नहीं, वह थी पुरुषत्व की पराकाष्ठ!
मुग्ध थी वह स्वयं अपने सर्जन,
अपनी रचना-शक्ति पर.
निर्निमेष निहारती थी वह -
चकित,अभिभूत-सी !
किन्तु फिर भी -
कुछ कमी तो रह गई थी
शेष है अब भी कहीं कुछ ...
मन ही मन वह कह रही थी-
किस लिए है मूक-स्थिर ये पुरुष?
क्यूँ नहीं स्पंद इं स्फीत शिराओं में?
क्यूँ नहीं फड़कन हुई स्फीत शिराओं में?
क्यूँ नहीं है रक्त का संचार ?
क्यूँ नहीं इसमें कोई उन्माद?
रह गई कृति क्या अधूरी आज भी?
होगी पूरी कभी न एक साध भी?
हार कर थक बैठना जाना न उसने
है असम्भव कुछ यहाँ मन न उसने .
वहीँ समाधिस्त हुई वह जीवट नारी
एकमात्र आत्मविश्वास के साथ.
समय बीतता गया ...
फिर सहसा ...
थम गया काल-चक्र!
थर्रा उठा प्रजापति का सिंघासन-
कौन? कौन है ?
कौन करना चाहता है यह अतिक्रमण ?
किसका साहस हाजीओ गया इतना विलक्षण?
तोड़ दे संकल्प अपना
छोड़ दे ये हट,
तोड़ दे अपनी प्रतिज्ञा
त्याग दे यह प्रण.
किन्तु
वह हठी नारी न मानी,
न थकी और न ही हारी,
बस एक ही रट ,
एक इच्छा,
एक ही थी चाह,
कुछ भी हो पाकर रहेगी
अंतिम सत्य की थाह .
'तथास्तु'
किन्तु -
एक शर्त मेरी भी सुन ओ हठी संतान,
कान में कुछ कह, प्रजापति हुए अंतर्ध्यान.
आज प्रसन्नता का परवर न था,
आज अधूरा कोई भी उदगार न था.
भव-विभोर हो ,धीरे से -
स्पर्श किया उसने
निज कल्पना का साकार मस्तक !
स्थिर पुतलियाँ धीरे से हिलीं,
पलकें झपकीं,
नस-नस में दौड़ गया रक्त का संचार,
फड़क उठीं मांसल मांसपेशियां,
तड़क उठीं दप-दप कर धमनियां,
स्पंदित हुई समूची कि समूची देंहराशि !
देख रही थी वह -
स्वनिर्मित मनुज को
हतप्रभ - सी...
कि
थरथराए प्रतिमा के अधर ,
एक अस्पष्ट शब्द फूटा -
तु...म..!
फिर स्पष्ट
तुम !
अक बार ,दो बार ,बार-बार....
गूँज उठा सकल आकाश ,
'तुम' के अनहद नाद से!
पाषण - कब से प्रतीक्षारत था मैं
हर पल, हर क्षण,
कट-कट कर
बिखर-बिखर कर
अनुभूत किया है मैनें बस -
'तुम्हे'!
मेरा एकमात्र अनुभूत सत्य हो -
'तुम'!
नारी-
नहीं-नहीं तुम तो पाषण थे ,
स्पन्दन्हीन , भाव-शून्य पाषण .
ये विचार,ये संवेदना तुममें कहाँ ?
पाषण-
भूल गईं तुम ?
सर्वप्रथम संवेदना का जल छिड़क ,
कोमल उँगलियों से सोह्लाया था तुमने,.
मुझ पाषण को माँ सा गलाया था तूने .
भीतर ही भीतर पिघल कर बह गया था मैं .
तुम्हारी कल्पना में
पल-पल ढलता रहा हूँ मैं .
स्वयं को सौंप तुम्हारे हाथों में ,
टूटता-बनता रहा हूँ मैं .
तुम्हारा एक-एक स्पर्श ,
मेरी देह में उभर बन अंकित है.
तुम्हारा प्रत्येक श्रम-सीकर ,
मुझमें स्निग्धता बन संचित है.
तुम्हारी देह की सुगंध,
मेरे रोम-रोम में समाई है.
तुम्हारा अस्तित्व ही मेरे स्व की
एक मात्र सच्चाई है.
कितनी ही बार क्लांत हो
मेरी छाया में विश्राम किया तुमने.
कितनी ही बार तुम्हारी ऊष्ण-शीत निःश्वास
इस वज्र स्थल से टकरा कर लौट गई.
किन्तु मैं ?
मैं मूक-स्थिर,विवश-कातर
सदा ही रहा अव्यक्त !!
आज....
आज मिली मुझको अभिव्यक्ति
स्वीकारो मेरी अनुरक्ति!
तुम ही तुम सदा समाई मुझमें,
चाहता हूँ मैं समाना आज तुममें !!
चुम्बकीय आकर्षण से
खिचती जाती वह गर्विता,
अपने ही वाणों से
बींधती जाती वह गर्विता ,
बलिष्ट भुजाओं ने थाम ली थी
जीर्ण-पत्र सी थरथराती काया
नहीं-नहीं कहती
समर्पित होती जाती ..
कैसा इंद्रजाल था ?
कैसी थी माया ?
राशि-राशी बिखर जाना चाहती थी वह
माँ बन कर पिघल जाना चाहती थी वह
कैसा मोहक था उन्माद ?
कैसा अद्भुत था प्रमाद ?
सहसा ..
कुछ याद कर चिटक गई वह
नहीं-नहीं
प्रजापति को यह स्वीकार नहीं
ईश्वर ने दिया हमको ये अधकार नहीं
नहीं-नहीं !!
पाषण-
कौन प्रजापति ?
कैसा ईश्वर ?
मेरी नियामक तुम !
मेरी नियंता तुम!
मेरी रचयिता तुम!
मेरी स्रष्टा तुम!
मेरी श्रध्दा तुम!
मेरी पूजा तुम!
स्वीकार लो मेरा समर्पण
प्रेम का अनुदान दो
चिर प्रतीक्षित हूँ तुम्हारा
अब मिलन का मान दो
बहने दो ...
मुझको बहने दो
संयम की दीवार प्रिये
ढहने दो...
अबतो ढहने दो
प्यासा हूँ
कबसे प्यासा हूँ
यौवन का मधुरस पीने दो
अपनी कृति से हारी नारी
अपनी कृति पे वारी नारी
मौन हुई वह कुछ न बोली
मूंदी आँखें फिर न खोलीं
शिथिल हो गए अंग सभी
बाकी न रहा कोई प्रतिरोध
टूटे बंधन ,टूटा संयम
वह झुकता जाता निर्विरोध
मिल गए अधर-अधरों से
सिल गए अधर-अधरों से
एक सिसकी ! एक हिचकी !
शांत, स्तब्ध,नीरव सन्नाटा
तड़क से कौंधी आकाश में तड़ित
प्रजापति मुस्कुराए
हतभागा...
बलिष्ट भुजाओं में
थामे खड़ा था
एक पाषण प्रतिमा !!
दीप्ति मिश्र
23.2.95 - 27.2.95
.
एक थी -
प्रकृति की अद्वितीय देन.
रूप-लावण्य,कला-प्रज्ञा का अद्भुत समन्वय .
जीवन के सत्य को जानती थी वह.
जीवन-गति को पहचानती थी वह.
हर-हरा कर बह जाना चाहती वह
किसी पार्वती सरिता सी,
इस छोर से उस छोर तक.
औरचाहती थी -
निर्बाध,निःशंक, निःसीम निर्वाण.
भय उसकी प्रकृति में नहीं था ,
और हारना उसने सीखा न था.
महत्व्काक्षां और सामर्थ्य
दोनों ही पाए थे उसने.
अदम्य साहस की एकक्षत्र साम्राज्ञी थी वह.
सकारात्मक क्रियात्मकता का
अतुलनीय,अपरिमित प्रतिफलन,
एक पाषण-शिला को देख -
उद्वेलित हुआ भावुक ह्रदय ,
कल्पना ने स्वप्निल पंख पसारे,
करवट ली विचार-श्रंखला ने.
प्रेरित हो छेनी-हथौड़ी ले -
लगी तराशने हौले-हौले
कठोर पाषण-शिला को
वह कृत संकल्प नारी.
दिन् बीते, रातें बीतीं ..
अनवरत ,सतत, प्रयत्नशील
डूबी रही वह अपनी धुन में .
अथक परिश्रम रंग लाया
कल्पना का साकार रूप सामने आया.
अब बन गया था वह पाषण -
एक पुरुष ..
एक परिपुष्ट पुरुष !
विस्तृत ललाट पर,
खिंची हुई प्रत्यंचा -सी सघन भ्रू-रेख'
शांत,स्निग्ध,स्थिर,नेत्र,
सूती हुई नासिका पर उभरे सुद्र्ण नासापुट,
पीन,पुष्ट,वर्तुलाकार,अधरोष्ठ ,
तानी हुई ग्रीवा पर नुकीली चिबुक,
विशाल वक्षस्थल पर उभरी मांसल मस्पेशियाँ,
कठोर भुजमूलों पर दमकती स्फीत शिराएँ.
अंग-अंग से फूटा था पौरुष.
प्रतिमा नहीं, वह थी पुरुषत्व की पराकाष्ठ!
मुग्ध थी वह स्वयं अपने सर्जन,
अपनी रचना-शक्ति पर.
निर्निमेष निहारती थी वह -
चकित,अभिभूत-सी !
किन्तु फिर भी -
कुछ कमी तो रह गई थी
शेष है अब भी कहीं कुछ ...
मन ही मन वह कह रही थी-
किस लिए है मूक-स्थिर ये पुरुष?
क्यूँ नहीं स्पंद इं स्फीत शिराओं में?
क्यूँ नहीं फड़कन हुई स्फीत शिराओं में?
क्यूँ नहीं है रक्त का संचार ?
क्यूँ नहीं इसमें कोई उन्माद?
रह गई कृति क्या अधूरी आज भी?
होगी पूरी कभी न एक साध भी?
हार कर थक बैठना जाना न उसने
है असम्भव कुछ यहाँ मन न उसने .
वहीँ समाधिस्त हुई वह जीवट नारी
एकमात्र आत्मविश्वास के साथ.
समय बीतता गया ...
फिर सहसा ...
थम गया काल-चक्र!
थर्रा उठा प्रजापति का सिंघासन-
कौन? कौन है ?
कौन करना चाहता है यह अतिक्रमण ?
किसका साहस हाजीओ गया इतना विलक्षण?
तोड़ दे संकल्प अपना
छोड़ दे ये हट,
तोड़ दे अपनी प्रतिज्ञा
त्याग दे यह प्रण.
किन्तु
वह हठी नारी न मानी,
न थकी और न ही हारी,
बस एक ही रट ,
एक इच्छा,
एक ही थी चाह,
कुछ भी हो पाकर रहेगी
अंतिम सत्य की थाह .
'तथास्तु'
किन्तु -
एक शर्त मेरी भी सुन ओ हठी संतान,
कान में कुछ कह, प्रजापति हुए अंतर्ध्यान.
आज प्रसन्नता का परवर न था,
आज अधूरा कोई भी उदगार न था.
भव-विभोर हो ,धीरे से -
स्पर्श किया उसने
निज कल्पना का साकार मस्तक !
स्थिर पुतलियाँ धीरे से हिलीं,
पलकें झपकीं,
नस-नस में दौड़ गया रक्त का संचार,
फड़क उठीं मांसल मांसपेशियां,
तड़क उठीं दप-दप कर धमनियां,
स्पंदित हुई समूची कि समूची देंहराशि !
देख रही थी वह -
स्वनिर्मित मनुज को
हतप्रभ - सी...
कि
थरथराए प्रतिमा के अधर ,
एक अस्पष्ट शब्द फूटा -
तु...म..!
फिर स्पष्ट
तुम !
अक बार ,दो बार ,बार-बार....
गूँज उठा सकल आकाश ,
'तुम' के अनहद नाद से!
पाषण - कब से प्रतीक्षारत था मैं
हर पल, हर क्षण,
कट-कट कर
बिखर-बिखर कर
अनुभूत किया है मैनें बस -
'तुम्हे'!
मेरा एकमात्र अनुभूत सत्य हो -
'तुम'!
नारी-
नहीं-नहीं तुम तो पाषण थे ,
स्पन्दन्हीन , भाव-शून्य पाषण .
ये विचार,ये संवेदना तुममें कहाँ ?
पाषण-
भूल गईं तुम ?
सर्वप्रथम संवेदना का जल छिड़क ,
कोमल उँगलियों से सोह्लाया था तुमने,.
मुझ पाषण को माँ सा गलाया था तूने .
भीतर ही भीतर पिघल कर बह गया था मैं .
तुम्हारी कल्पना में
पल-पल ढलता रहा हूँ मैं .
स्वयं को सौंप तुम्हारे हाथों में ,
टूटता-बनता रहा हूँ मैं .
तुम्हारा एक-एक स्पर्श ,
मेरी देह में उभर बन अंकित है.
तुम्हारा प्रत्येक श्रम-सीकर ,
मुझमें स्निग्धता बन संचित है.
तुम्हारी देह की सुगंध,
मेरे रोम-रोम में समाई है.
तुम्हारा अस्तित्व ही मेरे स्व की
एक मात्र सच्चाई है.
कितनी ही बार क्लांत हो
मेरी छाया में विश्राम किया तुमने.
कितनी ही बार तुम्हारी ऊष्ण-शीत निःश्वास
इस वज्र स्थल से टकरा कर लौट गई.
किन्तु मैं ?
मैं मूक-स्थिर,विवश-कातर
सदा ही रहा अव्यक्त !!
आज....
आज मिली मुझको अभिव्यक्ति
स्वीकारो मेरी अनुरक्ति!
तुम ही तुम सदा समाई मुझमें,
चाहता हूँ मैं समाना आज तुममें !!
चुम्बकीय आकर्षण से
खिचती जाती वह गर्विता,
अपने ही वाणों से
बींधती जाती वह गर्विता ,
बलिष्ट भुजाओं ने थाम ली थी
जीर्ण-पत्र सी थरथराती काया
नहीं-नहीं कहती
समर्पित होती जाती ..
कैसा इंद्रजाल था ?
कैसी थी माया ?
राशि-राशी बिखर जाना चाहती थी वह
माँ बन कर पिघल जाना चाहती थी वह
कैसा मोहक था उन्माद ?
कैसा अद्भुत था प्रमाद ?
सहसा ..
कुछ याद कर चिटक गई वह
नहीं-नहीं
प्रजापति को यह स्वीकार नहीं
ईश्वर ने दिया हमको ये अधकार नहीं
नहीं-नहीं !!
पाषण-
कौन प्रजापति ?
कैसा ईश्वर ?
मेरी नियामक तुम !
मेरी नियंता तुम!
मेरी रचयिता तुम!
मेरी स्रष्टा तुम!
मेरी श्रध्दा तुम!
मेरी पूजा तुम!
स्वीकार लो मेरा समर्पण
प्रेम का अनुदान दो
चिर प्रतीक्षित हूँ तुम्हारा
अब मिलन का मान दो
बहने दो ...
मुझको बहने दो
संयम की दीवार प्रिये
ढहने दो...
अबतो ढहने दो
प्यासा हूँ
कबसे प्यासा हूँ
यौवन का मधुरस पीने दो
अपनी कृति से हारी नारी
अपनी कृति पे वारी नारी
मौन हुई वह कुछ न बोली
मूंदी आँखें फिर न खोलीं
शिथिल हो गए अंग सभी
बाकी न रहा कोई प्रतिरोध
टूटे बंधन ,टूटा संयम
वह झुकता जाता निर्विरोध
मिल गए अधर-अधरों से
सिल गए अधर-अधरों से
एक सिसकी ! एक हिचकी !
शांत, स्तब्ध,नीरव सन्नाटा
तड़क से कौंधी आकाश में तड़ित
प्रजापति मुस्कुराए
हतभागा...
बलिष्ट भुजाओं में
थामे खड़ा था
एक पाषण प्रतिमा !!
दीप्ति मिश्र
23.2.95 - 27.2.95
.
Wednesday, 20 May 2015
कबाड़
कबाड़
सुनो,वो घर के पीछे वाले अन्धेरे बन्द कमरे में,
जो कबाड़ पड़ा था न !
जिसपे थोड़ी-थोड़ी जंक भी लग गई थी .
जो तुम्हारे किसी काम का नहीं था .
जिससे न तुम्हें जुड़ाव था न लगाव .
बेकार ही पड़ा-पड़ा धूल खा रहा था
आज उठा कर
बिना किसी मोल भाव के
उसे दे दिया जिसके लिए
वो कबाड़ अमृत समान था !!
ठीक किया न मैनें ?
बोलो, सही किया न ?
अब इतना अधिकार बनता है
तुम्हारी पत्नी जो हूँ !!!!
दीप्ति मिश्र
20 .5. 2015
Monday, 30 March 2015
मैं दिल से मजबूर हूँ
मैं दिल से मजबूर हूँ अपने और वो दुनियादारी से
दिल - दुनिया से जूझ रहे हैं दोनों बारी - बारी से
रिश्तों के इस खेल में इक दिन दोनों की ही हार हुई
वो अपनी चालों से हारा , मैं अपनी दिलदारी से
दिल से बाहर कर के मुझको अच्छा सा घर सौंप दिया
उसने अपना फ़र्ज़ निभाया कितनी ज़िम्मेदारी से
मेरा उसका रिश्ता जैसे ताला किसी ख़ज़ाने का
जिसको देखो काट रहा है अपनी-अपनी आरी से
चपके - चुपके उसने मेरे सारे रिश्ते बेच दिए
जैसे उसका रिश्ता हो कुछ रिश्तों के व्यापारी से
चोरी - चोरी चुपके - चुपके सारे रिश्ते बेच दिए
ख़ूब कमाई की है उसने ख़ालिस चोर बाज़ारी से
दीप्ति मिश्र
20.12.2014
20.12.2014
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