Tuesday 15 December 2009

SOORYAAST

सूर्यास्त


समझदार लोग --
अक्सर मुझे टोंकते हैं ,
कहते हैं ---
सूर्यास्त मत देखा करो ,
अपशकुन होता है !
सब चढ़ते सूरज को
प्रणाम करते हैं !
लेकिन मुझे --
तुम्हारा "डूबना" अच्छा लगता है ,
क्योंकि मैं तुम्हारे प्रकाश को नहीं ,
"तुम्हे"देखना चाहती हूँ !!
तुम्हे अनुभूत करना चाहती हूँ !!!

वैसे तुम उगते हुए भी
बहुत प्यारे लगते हो !
नवजात  शिशु- सी 
तुम्हारी "रक्तिम आभा"
           नेत्रों में ज्योति भर देती है ,        
लेकिन यह  स्थिति -
अधिक देर तक नहीं रहती -
धीरे-धीरे तुम्हारे प्रकाश से
सारा संसार जगमगा उठता है !
तब तुम ऐसे तेजस्वी राजा के
सामान होते हो --
जो अपने ही ताप से
तमतमा उठा हो !

तुम्हारे जगर-मगर प्रकाश में
सृष्टि की एक-एक संरचना ,
स्पष्ट रूप से दिखाई देती है ,
किन्तु मैं तुम्हे नहीं देख पाती
मेरी आँखें चौंधिया  जाती हैं !!

दिन भर अपने ही ताप से
तपते हुए तुम
जब संध्याकाल में
विश्राम करते हो
तब तुम्हारा सुनहरा वेष
जोगिया हो जाता है !
ऐसा प्रतीत होता है
जैसे कहीं एकांत में
कोई साधू समाधिस्थ  हो
डूबता जा रहा हो
ध्यान की गहराइयों में !!

ऐसे में -
सागर किनारे बैठ कर
जी भर कर देखती हूँ मैं तुम्हें 
दूर क्षितिज में

और
 धीरे-धीरे ---
डूबती जाती हूँ -
तुम्हारे साथ
तुम्हारे ध्यान की
गहराइयों में !!

दीप्ति मिश्र

Monday 7 December 2009

अहिल्या

   

वो किसी और की  पत्नी थी !
   उस पर  मोहित हो  गया कोई और  !
इस दूसरे ने ---
उसे पाने के लिए "छल" किया
और पहले ने 
 क्रोधित हो शाप दिया !!  
                
सदमा इतना गहरा था कि--
सन्न ! अवाक ! स्पन्दनहीन  !
नारी-देंह "पत्थर" हो गई !!
मौसम बीते ,फिर सहसा --
एक तीसरे के स्पर्श ने ,
पत्थर में" प्राण" फूँक दिए !


वो पत्थर जो अब स्त्री है ,
बैठे -बैठे सोच रही है --
एक ने छला !
एक ने शाप दिया !
और
एक ने जीवनदान !
इन तीन चरित्रों को 
 एक सूत्र में बाँधने वाली
अपनी इस कहानी में
"मैं" कहाँ हूँ ??

ये तो --------
तीन पुरुषों की इच्छा- पूर्ति के
"माध्यम" की कहानी है !!
इसमें " मैं" कहाँ हूँ ???
क्या पुरुष की "इच्छा" ही --
स्त्री की "नियति" है ???

नहीं ! ये मेरी कहानी
नहीं हो सकती !!!
वो उठी ----
उसने "अहिल्या " नाम का
चोला उतारा --
और चल पड़ी -----
अपने "अस्तित्व " की
तलाश में !!!!!
दीप्ति मिश्र

DOHE


दोहे 
*
रिश्तों के बाज़ार में ,चाहत का व्यापार ,
तोल -मोल कर बिक रहे ,इश्क ,मुहब्बत ,प्यार !
*
अपनी -अपनी कल्पना ,अपना -अपना ज्ञान '
जिसकी जैसी आस्था ,वैसा है भगवान् !


DUSTBIN


DUSTBIN


मैं एक --
SOPHISTICATED DUSTBIN हूँ  !
मेरी   SOCIETY के  लोग ,
जब  जी  चाहे ,मुझमें
अपना  कचरा  डाल जातें  हैं
और   ----
साफ़  हो  जाता  है ,
उनका  SO-CALLED घर  !!

लेकिन ----
मुझे  साफ़  करने  के  लिए ,
MUNICIPALITY की  गाड़ी,
नहीं  आती  !

मैं   इस  कचरे  को
खंगालती हूँ ,
छानती हूँ  !
कुछ  अच्छा मिल   जाता  है ,
तो  सहेज  लेती  हूँ  !!
जो  अच्छा  नहीं  होता ,
उसे  RECYCLE कर
स्वच्छ  बना  लेती  हूँ ,
स्वच्छ  हो  जाती  हूँ  !!

लेकिन  कब  तक  ??
कब  तक मैं
दूसरों  के  "विकार "
दूर  करती  रहूंगी  ??
क्या  ऐसा    कोई    पात्र  नहीं
जिसकी  पात्रता  में
"मैं " समा  सकूँ  ???

पागल  हूँ  मैं
एक  DUSTBIN के  लिए --
खोजती  हूँ ------
दूसरा  "DUSTBIN" !!!!

दीप्ति  मिश्र


aaj ka din

आज  का  दिन  ...
अच्छा बिता ... जीत  हुई ,' इच्छा' की मुश्किलों पर !
इंसान जो चाहे पा लेता है , बस इच्छा-शक्ति  होनी चाहिए !!!

दीप्ति मिश्र