यात्रा
एक
था परमात्मा
एक
थी आत्मा
और
एक था शरीर.
आत्मा
ने परमात्मा से पूछा –
मैं
कौन हूँ ?
उत्तर
मिला –
एक
अप्रत्यक्ष, अनश्वर, अपूर्ण
सत्य.
पूर्ण
कब होऊँगी ?
जब
मुझमें विलीन हो जोगी.
विलीन
कब होऊँगी ?
जब
यात्रा समाप्त हो जाएगी.
शरीर
ने पूछा –
मैं
कौन हूँ ?
उत्तर
मिला –
एक
प्रत्यक्ष, नश्वर, अपूर्ण
सत्य.
पूर्ण
कब होऊँगा ?
जब
विदेह हो जाओगे.
विदेह
कब होऊँगा ?
जब
यात्रा समाप्त हो जाएगी .
शरीर
और आत्मा ने एकसाथ पूछा-
यात्रा
कब समाप्त होगी ?
उत्तर
मिला –
जब
तुम दोनों एक-दूसरे का उद्धार करोगे.
एक
ओर था –
निष्प्राण, निर्विकार, नश्वर, अपूर्ण
सत्य.
दूसरी
ओर थी –
निराकार, निरालम्ब, शाश्वत, अपूर्ण
आत्मा.
दोनों
ही पूर्ण होना चाहते थे.
आत्मा
ने शरीर
और
शरीर ने आत्मा को
स्वीकार
लिया.
शरीर
को प्राण –
आत्मा
को आकार –
अभिव्यक्त
हुए दोनों एक साथ.
अद्भुत, अतुलनीय
था ये महामिलन !
आरम्भ
हो गई यात्रा और –
विकसित
होने लगीं दोनों की वृत्तियाँ –
एक
उत्तर तो दूसरा दक्षिण
एक पूरब
तो दूसरा पश्चिम
आत्मा
शांत तो शरीर उद्विग्न
शरीर
की अपनी आवश्यकता
आत्मा
की अपनी माँग
शरीर
की अपनी विवशता
आत्मा
की अपनी दृढ़ता
नतीजा
सामने था
टकराव-बिखराव-टूटन-द्वन्द.
धीरे-धीरे
बलवान होता गया शरीर
और
क्षीण होता गई आत्मा.
आत्मा
ने बहुत सर पटका
लाख अनुनय-विनय
की
किन्तु -
भोग-विलास,काम-वासना
में लिप्त
बलशाली
शरीर ने एक न सुनी.
बहुत
छटपटाई बहुत कसमसाई आत्मा
किन्तु
दम नहीं तोड़ सकी
अनश्वर
जो थी !
अब
कोई विकल्प शेष न था
चुप-चाप
निर्मोही बन
त्याग
दिया आत्मा ने शरीर !
क्षण
भर में
समाप्त
हो गया सारा खेल !!
धराशाही
पड़ा था बलशाली शरीर
निर्जीव-निर्विकार
!
आत्मा
ने परमात्मा से कहा –
मेरी
यात्रा समाप्त हुई ;
अब
समाहित करो मुझे अपने आप में .
परमात्मा
ने कहा –
अभी
कहाँ समाप्त हुई तुम्हारी यात्रा ?
तुमने
तो यात्रा अधूरी ही छोड़ दी .
शरीर
का उद्धार नहीं तिरस्कार किया है तुमने.
शरीर
तो निर्विकार था
तुमने
उसमें प्रवेश कर
विकार
युक्त किया उसे
विकार
का कारण तो स्वयं तुम हो
फिर
शरीर का तिरस्कार क्यों ?
शरीर
में रह कर ही –
तुम्हें
उसे निर्विकार बनाना था
यही
तुम्हारी परीक्षा थी
और
यही शरीर की .
तुम
दोनों ही हार गए .
पूर्णत्व
प्राप्त करने के लिए तुम्हें –
फिर
से धारण करना होगा
एक
नया शरीर
और
आरम्भ करनी होगी
एक
नईं यात्रा .
तब
से आज तक –
जाने
कितने शरीर धारण कर चुकी है आत्मा
निरन्तर, अनवरत, सतत
यात्रा किये जा रही है.
इस
आस और विश्वास के साथ
एक
न एक दिन वह
अपने
शरीर को निर्विकार बना लेगी .
उधर
–
ऊपर
बैठा परमात्मा
रहस्यमय
ढ़ंग से मुस्कुरा रहा है
क्योंकि
–
उसने
आज तक
एक
भी शरीर ऐसा नहीं बनाया
जो
आत्मा के होते हुए
निर्विकार
हो !!
दीप्ति मिश्र
2.5 2002
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