मैं
और मेरा भगवान्
मेरे
छोटे-से घर के
छोटे-से
कमरे की
छोटी-सी
अलमारी के
छोटे-से
ख़ाने में
शिव
जी की एक नन्ही-सी “बटिया” है .
जिसके
सामने रक्खे हैं-
एक
छोटा-सा अगरबती स्टैंड और
“रामचरित-मानस” की
एक प्रतिलिपि
बस.
मेरे
घर में भगवान के लिए मात्र इतनी ही जगह है.
क्यों
कि मैं एक बड़े शहर में रहती हूँ जहाँ –
घर
छोटे,आदमी छोटे और दिल छोटे होते हैं.
मैं
अपने भगवान पर गंगाजल नहीं चढ़ाती
इस
लिए नहीं कि है नहीं
वरन
इस लिए कि
मुझे
उसकी शुद्धता पर विश्वास नहीं रहा.
मैं
अपने भगवान् पर फूल भी नहीं चढ़ाती
क्योंकि
-
अपने
हाथों से लगाए पौधों के फूल तोड़ने में
मुझे
दर्द होता है और
दूसरों
से माँगने की मेरी आदत नहीं .
मैं
अपने भगवान् को –
न
चन्दन लगाती हूँ, न रोली, न
अक्षत .
रोली,चन्दन
अक्षत तो है
किन्तु
समय नहीं है.
मगर
फिर भी –
मेरा
भगवान् मुझसे रुष्ट नहीं होता
क्योंकि
वो भगवान् है.
मैं
नित्य प्रातः
स्नान
करके भगवान् के आगे अगरबत्ती जलाती हूँ
मूक
स्वर में मानस का पाठ करती हूँ
और –
आँख
मूँद कर उससे वो सब कह जाती हूँ
जिसे
स्वप्न में भी किसी से कहने से डरती हूँ
फिर
चिंतामुक्त हो जाती हूँ !
कभी-कभी
ऐसा भी होता है –
मैं
अपने भगवान् से रूठ जाती हूँ,
महीनों
पूजन नहीं करती.
मेरे
भगवान् पर धूल की परतें जम जाती हैं
लेकिन
तब भी,
मेरा
भगवान् मुझसे रुष्ट नहीं होता
क्योंकि
वो भगवान् है
फिर
–
जब
कभी मेरे दुखों की गगरी भर जाती है
तब
मुझे अपने भगवान् की याद आती है
मैं
रोती हूँ, गिडगिडाती हूँ
जो
रूठा ही नहीं,
ऐसे
भगवान् को मानती हूँ .
बस
यूँ ही क्रम चलता रहता है
मेरा
-
और
मेरे भगवान् का .....!!
दीप्ति मिश्र
21.3.86
दीप्ति मिश्र
21.3.86