ग़ज़ल
अपने काधें पर सर रख कर
खुद ही थपकी दे लेते हैं
याद हमें अब कौन करेगा खुद ही हिचकी ले लेते हैं
मझधारों में नाव चलाना कोई मुश्किल काम नहीं है
सूखी रेती में भी अब तो
अपनी नईय्या खे लेते हैं
देखें घाव भरें हैं कितने जब भी मन में ये आता
है
नाम तभी तेरा मन ही मन
चुपके से हम ले लेते हैं
ख़ैर-ख़बर मेरी तुम लोगे
अब तो ये भी आस नहीं है
खु़द को चिट्ठी लिख कर
अब तो खु़द ही उत्तर दे लेते हैं
अच्छा है जो खुल ही गयी
ये मुट्ठी जो थी बन्द अभी तक
खा़ली हाथ हवा में उठ कर
आज दुआएँ दे लेते हैं
इस छोटी सी दुनिया में
तुम शायद फिर से मिल जाओगे
सोच के कुछ ऐसी ही बातें दिल को तसल्ली दे लेते हैं
दीप्ति मिश्र
4.5.95 - 2.6.95
दीप्ति मिश्र
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