Thursday 11 April 2013

अपने काँधे पर


ग़ज़ल  



अपने काधें पर सर रख  कर खुद ही थपकी दे लेते हैं
याद हमें अब  कौन  करेगा खुद ही हिचकी ले लेते हैं

मझधारों में नाव  चलाना  कोई मुश्किल काम नहीं है
सूखी  रेती  में भी अब तो अपनी नईय्या  खे लेते हैं

 देखें  घाव  भरें  हैं कितने  जब भी मन में ये आता है
नाम तभी तेरा मन ही मन चुपके से हम ले   लेते  हैं

ख़ैर-ख़बर  मेरी तुम  लोगे अब  तो ये भी आस नहीं है
खु़द को चिट्ठी लिख  कर अब तो खु़द ही उत्तर दे लेते हैं

अच्छा है जो खुल ही गयी ये मुट्ठी जो थी बन्द अभी तक
खा़ली  हाथ  हवा में  उठ  कर आज  दुआएँ  दे  लेते हैं

इस छोटी सी दुनिया में तुम शायद फिर से मिल जाओगे
सोच   के कुछ  ऐसी ही बातें दिल को तसल्ली दे लेते हैं

दीप्ति मिश्र 
4.5.95 - 2.6.95


दिल की बात



ग़ज़ल  


 दिल  की  बात  ज़ुबां  तक  लाएं ये हमको मंज़ूर नहीं
उसको  रुसवा  कर दें ये  तो  चाहत का  दस्तूर  नहीं

समझा  कर  दीवाने  दिल को  सब्र किये  हम बैठे  हैं
लेकिन  तुमसे  ना मिल पाएं  इतने तो  मजबूर  नहीं

तोड़  के  सारी  रस्में  ऐसी  एक कहानी लिख दें हम
लैला - मजनू  के क़िस्से  भी  जितने थे मशहूर  नहीं

इस दूरी से शिक़वा क्या जब दिल की दिल सुन लेता है
लाख  जुदा  हों जिस्म हमारे  हम तो फिर भी दूर नहीं

बिसरा  कर हम इस दुनिया को  अपनी धुन में रहते हैं
लेकिन  तुमको  ना  पहचानें  इतने  तो मग़रूर   नहीं  

दीप्ति मिश्र 
15.6.95 - 24.6.95

हम न मानेगें


ग़ज़ल  


हम न मानेगें  हमें अब शौक़  से  इलज़ाम  दें
क्या ज़रूरी है कि हर रिश्ते को हम इक नाम दें

सिसिला  चलता  रहे बस इस तरह ही उम्र भर
क्या ज़रूरी है कि  हर आग़ाज़  को अंजाम  दें

है निहायत  ही  निजी पाकीज़गी  हर  एक की
क्या  ज़रूरी है सफ़ा  इसकी  सुबहो  शाम  दें

गल्तियाँ   हसे  हुईं  आख़िर  तो हम इन्सान हैं
क्या  ज़रूरी है कि मजबूरी  का उनको  नाम  दें

खीच कर ले आएगी अपनी कशिश उस शख्स़ को
क्या  ज़रूरी  है  उसे  हर  बार  हम  पैग़ाम  दें

बिन  ख़रीदे  ही  हमें  खु़शियाँ मिलें ऐसा भी हो
क्या ज़रूर है कि  उनका हम  सदा  ही दाम  दें

दीप्ति मिश्र
20.1.95 - 27.1 95 

Saturday 29 September 2012

DIPTI MISRA IN BHEL MUSHAYRA BHOPAL

Tuesday 25 September 2012

Saturday 22 September 2012

Wednesday 5 September 2012

माँ


                        माँ


बच्चों को लाड़-प्यार से पाल-पोस कर
बड़ा तो कर दिया उसने लेकिन
खुद वहीं अटक कर रह गई !!

आज भी बच्चों के साथ बच्चा बन कर
खेलने को ललक उठती है !!

झूठ-मूठ में रूठ जाती है
कि बच्चे मनाएंगे !

झूठ-मूठ में रोने लगती है
कि बच्चे चुपाएंगे !

झूठ-मूठ में डर जाती है
कि बच्चे सीने से लिपटाएंगे

लकिन बच्चे...
न मनाते हैं
न चुपाते हैं
 ना ही सीने से लिपटाते हैं 

वो अब समझदार हो गए हैं जानते हैं
 कि ये माँ का खेल है
सब झूठ-मूठ है !

बस माँ ही नहीं जानती
कि सब झूठ-मूठ है
झूठ–मूठ !!  

दीप्ति मिश्र  
5.9.2012