Sunday, 28 February 2010

AKSHAR




अक्षर 


लिखते-लिखते 
शब्दों के जाल में 
उलझ गईं हूँ मैं !
शब्द से वाक्य 
वाक्य से अनुच्छेद 
अनुच्छेद से अध्याय 
अध्याय से ग्रन्थ 
तक की यात्रा 
क्यों करनी पड़ती है 
बार-बार मुझे ?
मैनें तो कभी 
कोई शब्द नहीं गढ़ा
फिर क्यों मुझे 
शब्दों से जूझना पड़ा ?
अनुभूति की सीमा में 
अक्षर 'अक्षर' है 
किन्तु अभिव्यक्त होते ही 
'शब्द' बन जाता है
और फिर से 
आरम्भ हो जाती है 
एक नई यात्रा -
शब्द,वाक्य ,अनुछेद 
अध्याय और ग्रन्थ की ! 
काश !!
कोई छीन ले मुझसे 
मेरी सारी अभिव्यक्ति 
और 
 अनुभूत हो मुझे अक्षर 
सिर्फ 
"अक्षर"!!!!!!!!!!

दीप्ति मिश्र 






Tuesday, 23 February 2010

दुखती रग पर

 


दुखती  रग पर उंगली  रख कर पूछ रहे हो कैसी हो 
तुमसे  ये  उम्मीद नहीं थी , दुनिया  चाहे  जैसी हो 

एक तरफ़ मैं बिल्कुल तन्हा एक तरफ़ दुनिया सारी 
अब  तो जंग  छिड़ेगी  खुलकर , ऐसी हो या वैसी हो 

मुझको  पार  लगाने  वाले  जाओ तुम तो पार लगो 
मैं  तुमको  भी  ले  डूबुगीं  कश्ती  चाहे   जैसी   हो 

जलते  रहना,  चलते  रहना   तो  उसकी  मजबूरी  है 
सूरज नें ये कब चाहा  था  उसकी  क़िस्मत  ऐसी  हो 

ऊपरवाले ! अपनी जन्नत  और  किसी  को  दे  देना 
मैं  अपनी  दोज़ख़  में  ख़ुश  हूँ जन्नत चाहे जैसी हो 

दीप्ति मिश्र  

विश्राम

  

मेरी रीढ़ की हड्डी ने 
ऐलान कर दिया है --
 तुम्हारे पत्थर दिल का बोझ 
अब और नहीं उठा सकती !

दिमाग़ ने थक कर -
काम करने से इन्कार कर दिया है !

इस चलती-फिरती ज़िन्दा मशीन का 
एक-एक कलपुर्ज़ा मेरी ज़्यादतियों से 
 चरमरा कर बग़ावत पर उतर आया है !

 स्वार्थ कहता है -
इस जर्जर पिंजर को त्याग दो !

कर्तव्य कहता है रुको -
पहले मुझे पूरा करो !
  
शायद वक़्त आ गया है 
कि मैं अपनी इच्छा-शक्ति को भी  
विश्राम  दूँ और साक्षी भाव से देखूँ

ये "मैं" कर्तव्यपरायण है  
या स्वार्थी !!!

दीप्ति मिश्र 

Friday, 19 February 2010

BEHAD BECHAENI HAI

ग़ज़ल 

बेहद   बेचैनी   है   लेकिन   मक़सद  ज़ाहिर  कुछ   भी  नहीं 
पाना - खोना, हँसना - रोना  क्या  है  आख़िर  कुछ भी नहीं  

अपनी - अपनी   क़िस्मत  सबकी, अपना- अपना  हिस्सा है 
जिस्म की ख़ातिर लाखों सामां,रूह की ख़ातिर कुछ भी नहीं 

उसकी   बाज़ी , उसके   मोहरे , उसकी  चालें , उसकी  जीत
उसके  आगे  सारे  शातिर  ,माहिर , क़ादिर  कुछ  भी   नहीं  

उसका   होना   या    ना   होना ,  ख़ुद  में   ज़ाहिर  होता   है 
गर  वो   है  तो  भीतर  ही  है  वरना  बज़ाहिर  कुछ भी  नहीं 

दुनिया  से   जो  पाया   उसने   दुनिया  ही   को  सौंप  दिया 
ग़ज़लें-नज़्में  दुनिया  की  हैं  क्या  है  शाइर  कुछ  भी  नहीं 

दीप्ति मिश्र 

Thursday, 4 February 2010

SALEEB


सलीब 


संवेदना की सलीब पर ,
लटकी हुई 'मैं'
जाने कब से ...
अपने घाव धो-पोंछ रही हूँ !
लोग मेरे पास आते हैं 
मुझे अनुभूत करते हैं 
और 
घोल देते हैं 
अपनी सारी की सारी वेदना 
मेरी संवेदना में !
फिर कहते हैं --
'मेरी हो जाओ'
उत्तर में 'नहीं' सुनकर 
बौखला जाते हैं 
और
शब्दों का हथौड़ा लेकर 
'ठक्क' से ठोंक देते हैं
मेरे सीने में 
दुःख की एक और 'कील'!
 मैं कुछ नहीं कहती 
इधर मेरे घावों से
रिसने लगता है 
लहू  ...
उधर उनकी आँखों से 
आँसू !!

दीप्ति मिश्र 

Saturday, 30 January 2010

MAIN GHUTNE TEK DUN


ग़ज़ल


मैं   घुटने  टेक दूँ   इतना   कभी   मजबूर   मत  करना
खुदाया   थक  गई   हूँ  पर   थकन  से चूर  मत करना

तुम   अपने   आपको  मेरी  नज़र  से  दूर  मत  करना 
इन   आँखों   को  खुदा  के  वास्ते   बेनूर  मत  करना 

मैं खुद को जानती हूँ  मैं   किसी   की  हो  नहीं  सकती
तुम्हारा   साथ  गर   मागूँ  तो  तुम  मंज़ूर मत  करना 

यहाँ  की   हूँ  वहाँ    की   हूँ   ख़ुदा  जाने   कहाँ   की  हूँ 
मुझे   दूरी   से   क़ुर्बत   है   ये   दूरी   दूर   मत   करना 

न घर अपना, न दर अपना, जो कमियाँ हैं वो कमियाँ हैं 
अधूरेपन   की    आदी    हूँ    मुझे   भरपूर   मत   करना 

दीप्ति मिश्र 
22.2.2010

Wednesday, 27 January 2010

CHAHAT









चाहत 



तुम चाहते हो कि 'मैं'
तुम्हें तुम्हारे लिए  चाहूँ 
क्यों भला ?
क्या कभी 'तुमने' मुझे
मेरे  लिए चाहा ?
नहीं ना !!
दरअसल ये चाहने और ना चाहने 
की ख्वाहिश ही बेमानी है !
बा- मानी है तो बस 'चाहत'
मेरी चाहत 
तुम्हारी चाहत 
या फिर --
किसी और की चाहत ....


दीप्ति मिश्र 
6.8.2005