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Friday 2 May 2014

यात्रा

यात्रा

एक था परमात्मा
एक थी आत्मा
और एक था शरीर.
आत्मा ने परमात्मा से पूछा
मैं कौन हूँ ?
उत्तर मिला
एक अप्रत्यक्ष, अनश्वर, अपूर्ण सत्य.
पूर्ण कब होऊँगी ?
जब मुझमें विलीन हो जोगी.
विलीन कब होऊँगी ?
जब यात्रा समाप्त हो जाएगी.

शरीर ने पूछा
मैं कौन हूँ ?
उत्तर मिला
एक प्रत्यक्ष, नश्वर, अपूर्ण सत्य.
पूर्ण कब होऊँगा ?
जब विदेह हो जाओगे.
विदेह कब होऊँगा ?
जब यात्रा समाप्त हो जाएगी .

शरीर और आत्मा ने एकसाथ पूछा-
यात्रा कब समाप्त होगी ?
उत्तर मिला
जब तुम दोनों एक-दूसरे का उद्धार करोगे.

एक ओर था
निष्प्राण, निर्विकार, नश्वर, अपूर्ण सत्य.
दूसरी ओर थी
निराकार, निरालम्ब, शाश्वत, अपूर्ण आत्मा.
दोनों ही पूर्ण होना चाहते थे.
आत्मा ने शरीर
और शरीर ने आत्मा को
स्वीकार लिया.
शरीर को प्राण
आत्मा को आकार
अभिव्यक्त हुए दोनों एक साथ.
अद्भुत, अतुलनीय था ये महामिलन !

आरम्भ हो गई यात्रा और
विकसित होने लगीं दोनों की वृत्तियाँ
एक उत्तर तो दूसरा दक्षिण
एक पूरब तो दूसरा पश्चिम
आत्मा शांत तो शरीर उद्विग्न
शरीर की अपनी आवश्यकता
आत्मा की अपनी माँग
शरीर की अपनी विवशता
आत्मा की अपनी दृढ़ता
नतीजा सामने था
टकराव-बिखराव-टूटन-द्वन्द.
धीरे-धीरे बलवान होता गया शरीर
और क्षीण होता गई आत्मा.
आत्मा ने बहुत सर पटका
लाख अनुनय-विनय की
किन्तु -                                                           
भोग-विलास,काम-वासना में लिप्त                                    
बलशाली शरीर ने एक न सुनी.
बहुत छटपटाई बहुत कसमसाई आत्मा
किन्तु दम नहीं तोड़ सकी
अनश्वर जो थी !
अब कोई विकल्प शेष न था
चुप-चाप निर्मोही बन
त्याग दिया आत्मा ने शरीर !
क्षण भर में
समाप्त हो गया सारा खेल !!
धराशाही पड़ा था बलशाली शरीर
निर्जीव-निर्विकार !

आत्मा ने परमात्मा से कहा
मेरी यात्रा समाप्त हुई ;
अब समाहित करो मुझे अपने आप में .
परमात्मा ने कहा
अभी कहाँ समाप्त हुई तुम्हारी यात्रा ?
तुमने तो यात्रा अधूरी ही छोड़ दी .
शरीर का उद्धार नहीं तिरस्कार किया है तुमने.
शरीर तो निर्विकार था
तुमने उसमें प्रवेश कर
विकार युक्त किया उसे
विकार का कारण तो स्वयं तुम हो
फिर शरीर का तिरस्कार क्यों ?
शरीर में रह कर ही
तुम्हें उसे निर्विकार बनाना था
यही तुम्हारी परीक्षा थी
और यही शरीर की .
तुम दोनों ही हार गए .
पूर्णत्व प्राप्त करने के लिए तुम्हें
फिर से धारण करना होगा
एक नया शरीर
और आरम्भ करनी होगी
एक नईं यात्रा .

तब से आज तक
जाने कितने शरीर धारण कर चुकी है आत्मा
निरन्तर,  अनवरत, सतत यात्रा किये जा रही है.
इस आस और विश्वास के साथ
एक न एक दिन वह
अपने शरीर को निर्विकार बना लेगी .

उधर
ऊपर बैठा परमात्मा
रहस्यमय ढ़ंग से मुस्कुरा रहा है
क्योंकि
उसने आज तक
एक भी शरीर ऐसा नहीं बनाया
जो आत्मा के होते हुए
निर्विकार हो !!

दीप्ति मिश्र
2.5 2002



Thursday 1 May 2014

प्यास

प्यास


सच है
प्यासी हूँ मैं
बेहद प्यासी
मगर तुमसे किसने कहा, कि
तुम मेरी प्यास बुझाओ ?
मुझसे कहीं ज़्यादा रीते,
कहीं ज़्यादा ख़ाली हो तुम .
और...
तुम्हें अहसास तक नहीं
कि -  
भरना चाहते हो तुम अपना खालीपन
मेरी प्यास बुझाने के नाम पर .
ताज्जुब है !
मुक्कमल बनाना चाहता है मुझे
एक-

आधा-अधूरा इन्सान !! 

दीप्ति मिश्र 
17.2.2004

गन्तव्य

गन्तव्य



शांत, शीत, श्वेत, सघन
शिखर पर स्थित थी वह .
निर्विकार ! निर्विचार !
जाने किसने उसे बता दिया
तुम्हारे जीवन का सार है – “सागर

शांत चित्त उद्वेलित हुआ
विचार और विकार की ऊष्मा पा
पिघलने लगी बर्फ़ की चट्टान.
जन्मी एक आस
उपजा एक विश्वास
ज्ञात हुआ एक लक्ष्य
सागर ! सागर ! सागर !
उसे सागर तक जाना था
सागर को पाना था
सागर हो जाना था .

बहुत रोका गया, टोका गया
बताया गया उसे कि
शिखर से धरा और
धरा से अतल गहराइयों तक
झुकते चले जाने की यात्रा
बहुत जटिल, बहुत दुरूह
और बहुत पीड़ादायक है.
किन्तु उसे तो
लौ लगी थी अपने सागरकी 
उसका लक्ष्य था सागर
उसका गन्तव्य था सागर
उसका सत्य था सागर
उसका सर्वस्व था सागर.

बस फिर क्या था
शक्ति, विश्वास और आस्था बटोर 
बह चली वह
हरहराती, मदमाती
लहराती, बलखाती
हरयाली बिखेरती,
प्यासों की प्यास बुझाती,
तप्तों का ताप मिटाती
बहती जाती निर्बाध गति से
नन्ही सी जालधार
सागर को पाने
बिना ये जाने
कि सागर कहाँ है ?

राह में मिला उसे जल-प्रपात
धारा ने पूछा
क्या तुम सागर हो ?
उत्तर मिला
नहीं मैं सागर नहीं हूँ ,
सागर होना चाहता हूँ .
सुना है बहुत दुरूह है सागर होना
भय लगता है मुझे
कि सागर तक पहुँचने से पहले ही
कहीं मैं सूख न जाऊँ.
इसी लिए यात्रा आरम्भ नहीं कर पाता
और जहाँ का तहाँ खड़ा हूँ.
क्या तुम मेरी मदद करोगी ?
निर्भय, निर्भीक और हठी जलधार ने
पल भर कुछ सोचा फिर कहा
चलो मेरे साथ .
कुछ क्षण पश्चात्
जल-प्रपात कहीं नहीं था
नन्ही सी जलधार विस्तृत हो
नदीबन चुकी थी !
अबाध गति से बढ़ रही थी वह
सागर को पाने
बिना ये जाने
कि सागर कहाँ है ?

कभी भी, कहीं भी, किसी भी
मोड़ पर मुड़ जाती थी वह
यह सोच कर कि
शायद सागर यहाँ हो !
हर मोड़, हर गाम, हर ठौर
उसे मिला
एक और जल
एक और धारा
एक और झरना
एक और नद
एक और त्वरा
एक और उद्वेग
एक और उफान
सब के सब सागर की खोज में थे .
एक-एक कर
समाहित होते गए सब उसमें
और बढ़ता चला गया
नन्ही सी नदी का विस्तार !

बहते-बहते रुक गई है वह,
थम गई है वह ,
नहीं थकी नहीं है वह
किन्तु जहाँ पहुँच गई है
उके आगे कुछ शेष नहीं है.
अपने चारों ओर बह-बह कर
लौटना पड़ता है उसे
बार-बार स्वयं में !
बहत गहरी, बहुत विस्तृत, बहुत स्थिर
कितु बहुत बेचैन है वह
बार-बार पूछती है
सागर कहाँ है ?
सागर कहाँ है
कहाँ है सागर ?
कोई उसे बता क्यों नहीं देता
वह सागर हो गई है
वह सागर हो गई है !!

दीप्ति मिश्र 
15.4.2002

Wednesday 5 September 2012

माँ


                        माँ


बच्चों को लाड़-प्यार से पाल-पोस कर
बड़ा तो कर दिया उसने लेकिन
खुद वहीं अटक कर रह गई !!

आज भी बच्चों के साथ बच्चा बन कर
खेलने को ललक उठती है !!

झूठ-मूठ में रूठ जाती है
कि बच्चे मनाएंगे !

झूठ-मूठ में रोने लगती है
कि बच्चे चुपाएंगे !

झूठ-मूठ में डर जाती है
कि बच्चे सीने से लिपटाएंगे

लकिन बच्चे...
न मनाते हैं
न चुपाते हैं
 ना ही सीने से लिपटाते हैं 

वो अब समझदार हो गए हैं जानते हैं
 कि ये माँ का खेल है
सब झूठ-मूठ है !

बस माँ ही नहीं जानती
कि सब झूठ-मूठ है
झूठ–मूठ !!  

दीप्ति मिश्र  
5.9.2012

Tuesday 23 February 2010

विश्राम

  

मेरी रीढ़ की हड्डी ने 
ऐलान कर दिया है --
 तुम्हारे पत्थर दिल का बोझ 
अब और नहीं उठा सकती !

दिमाग़ ने थक कर -
काम करने से इन्कार कर दिया है !

इस चलती-फिरती ज़िन्दा मशीन का 
एक-एक कलपुर्ज़ा मेरी ज़्यादतियों से 
 चरमरा कर बग़ावत पर उतर आया है !

 स्वार्थ कहता है -
इस जर्जर पिंजर को त्याग दो !

कर्तव्य कहता है रुको -
पहले मुझे पूरा करो !
  
शायद वक़्त आ गया है 
कि मैं अपनी इच्छा-शक्ति को भी  
विश्राम  दूँ और साक्षी भाव से देखूँ

ये "मैं" कर्तव्यपरायण है  
या स्वार्थी !!!

दीप्ति मिश्र