अक्षर
लिखते-लिखते
शब्दों के जाल में
उलझ गईं हूँ मैं !
शब्द से वाक्य
वाक्य से अनुच्छेद
अनुच्छेद से अध्याय
अध्याय से ग्रन्थ
तक की यात्रा
क्यों करनी पड़ती है
बार-बार मुझे ?
मैनें तो कभी
कोई शब्द नहीं गढ़ा
फिर क्यों मुझे
शब्दों से जूझना पड़ा ?
अनुभूति की सीमा में
अक्षर 'अक्षर' है
किन्तु अभिव्यक्त होते ही
'शब्द' बन जाता है
और फिर से
आरम्भ हो जाती है
एक नई यात्रा -
शब्द,वाक्य ,अनुछेद
अध्याय और ग्रन्थ की !
काश !!
कोई छीन ले मुझसे
मेरी सारी अभिव्यक्ति
और
अनुभूत हो मुझे अक्षर
सिर्फ
अनुभूत हो मुझे अक्षर
सिर्फ
"अक्षर"!!!!!!!!!!
दीप्ति मिश्र
2 comments:
दीप्तिजी, इस अच्छी कविता के लिए बधाई! आपका कहना बिल्कुल सच है-
अनुभूति की सीमा में
अक्षर 'अक्षर' है
किन्तु अभिव्यक्त होते ही
'शब्द' बन जाता है
और फिर से
आरम्भ हो जाती है
एक नई यात्रा
देवमणि पाण्डेय (मुम्बई)
man hai ki manta hi nahi
bus kehta hai ki padhta jau padhta jau.....
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