Thursday 3 June 2010
Friday 30 April 2010
CHAAR CHAUK SOLAH
चार चौक सोलह
बियर की एक ख़ाली बोतल ,चाय के दो जूठे कप
और वातावरण का बासीपन ,बैरा उठा कर ले गया !
देखते ही देखते --
फाइव स्टार होटल का तरो-ताज़ा भरा-पूरा कमरा
मेरे मन के साथ एकदम ख़ाली हो गया !!!!!
कुछ देर पहले ----
इस बिखरे हुए बेतरतीब कमरे में
सोफे की सिकुड़नों ,बिस्तर की सिलवटों
कुछ स्पर्श ,कुछ गंध और कुछ आहटों
कहे-अनकहे शब्दों की ध्वनियों
कहकहों-खिलखिलाहटों की गूँज
के बीच तुम सबका अहसास सँजोए,
अकेली कहाँ थी मैं!!
एकाकी बैठी सोच रही हूँ---
चार दिशाएँ अपने सारे पूर्वाग्रह त्याग
कुछ यूँ आ मिलीं कि हमारी चौकड़ी बन गई !
एक-दूसरे की खूबियाँ और ख़ामियाँ
स्वीकारते हुए, गलबहियां डाले ,
हम चार पल, चार क़दम साथ चले !
कभी मन्दिर की चौखट चूमी
तो कभी चौगड्डा जमाया !!
हममें से कोई दो होते तो वो बात नहीं होती ,
तीन होते तो भी वो बात नहीं होती ,
चारों होते तो क्या बात होती !!
सोचती हूँ ये सब चार ही क्यों
आठ या दस क्यों नहीं ?
ये ज़िन्दगी भी तो चार दिन की है
शायद इसी लिए !!
सुख इसका है कि हम मिले
इतना ही यथेष्ट है !!!
CHEERS !!!!
दीप्ति मिश्र
कुछ स्पर्श ,कुछ गंध और कुछ आहटों
कहे-अनकहे शब्दों की ध्वनियों
कहकहों-खिलखिलाहटों की गूँज
के बीच तुम सबका अहसास सँजोए,
अकेली कहाँ थी मैं!!
एकाकी बैठी सोच रही हूँ---
चार दिशाएँ अपने सारे पूर्वाग्रह त्याग
कुछ यूँ आ मिलीं कि हमारी चौकड़ी बन गई !
एक-दूसरे की खूबियाँ और ख़ामियाँ
स्वीकारते हुए, गलबहियां डाले ,
हम चार पल, चार क़दम साथ चले !
कभी मन्दिर की चौखट चूमी
तो कभी चौगड्डा जमाया !!
हममें से कोई दो होते तो वो बात नहीं होती ,
तीन होते तो भी वो बात नहीं होती ,
चारों होते तो क्या बात होती !!
सोचती हूँ ये सब चार ही क्यों
आठ या दस क्यों नहीं ?
ये ज़िन्दगी भी तो चार दिन की है
शायद इसी लिए !!
जाने-अनजाने हम एक-दूसरे को वो दे गए
जिसे स्वयं से नहीं पाया जा सक्ता
जब-जब हम मिले चार-चौक सोलह हो गए
सोलह आने खरे और पूर्ण !!!
कैसा अद्भुत आनंद था
इस सहज-सरल और निश्छल सान्निध्य में !
दुःख इसका नहीं कि हम बिछड़ गएसुख इसका है कि हम मिले
इतना ही यथेष्ट है !!!
CHEERS !!!!
दीप्ति मिश्र
नोट –ये कविता फिल्म तनू वेड्स मनू की शूटिंग
के दौरान लिखी गई थी राजेन्द्र गुप्ता ,के
के रैना ,नवनी परिहार और मेरी बेबाक दोस्ती ही इस कविता की जन्मदात्री है .
Friday 16 April 2010
KAHAN SE CHALE THE
ग़ज़ल
कहाँ से चले थे , कहाँ आए हैं हम
ये बदले में अपने किसे लाए हैं हम
नहीं फ़र्क़ अपने - पराए में कोई
सभी अजनबी हैं जहाँ आए हैं हम
हमें कोई समझा नहीं तो गिला क्या
कहाँ ख़ुद ही ख़ुद को समझ पाए हैं हम
इन्हे भी शिक़ायत , उन्हें भी गिला है
ख़ुदा बन के बेहद ही पछताए हैं हम
ज़रा सा रुको फिर नई चोट देना
अभी तो ज़रा सा संभल पाए हैं हम
बुरे से बुरा जो भी होना है हो ले
जो सबसे बुरा था वो सह आए हैं हम
दीप्ति मिश्र
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