Friday, 30 July 2010
Sunday, 25 July 2010
Saturday, 24 July 2010
Sunday, 11 July 2010
गन्तव्य
शांत,शीत श्वेत,
सघन -शिखर पर
सघन -शिखर पर
स्थित थी वो !
निर्विकार ! निर्विचार !
जानें किसनें उसे बता दिया -
उसके जीवन का सार है -
"सागर" !
शांत चित्त उद्वेलित हुआ
विचार और विकार की ऊष्मा पा-
पिघलने लगी बर्फ़ की चट्टान !
जन्मी एक आस
उपजा एक विश्वास
ज्ञात हुआ एक लक्ष-
सागर ! सागर ! सागर !
उसे सागर तक जाना था
सागर को पाना था
सागर हो जाना था !!
बहुत रोका गया ,
टोका गया उसे की-
टोका गया उसे की-
शिखर से धरा तक और
धरा से अतल गहराइयों तक
झुकते चले जाने की यात्रा
बहुत कष्टप्रद , बहुत कठोर ,
बहुत जटिल , बहुत दुरूह है!
पर उसे तो लौ लगी थी
बस अपनें "सागर" की !
उसका गन्तव्य था "सागर"!
उसका सत्य था "सागर"!
उसका सर्वस्व था "सागर"!
बस फिर क्या था-
पूर्ण आत्म-विश्वास
और आस्था बटोर
बह चली -
हरहराती,मदमाती
लहराती,बलखाती
अपनी धुन में मस्त !
हरियाली बिखेरती,
प्यासों की प्यास बुझाती
तपतों का ताप मिटाती
बहती जाती निर्बाध गति से
नन्ही सी जलधार
सागर को पानें
बिना ये जाने
की सागर कहाँ है ?
राह में मिला उसे
एक जल-प्रपात
धारा नें पूछा-
क्या तुम सागर हो ?
जल-प्रापात नें कहा-
नहीं मैं सागर नहीं हूँ ,
सागर होना चाहता हूँ !
सुना है --
बहुत दुरूह है सागर होना
भय लगता है मुझे ,
सागर तक पहुँचने से पहले ही
कहीं सूख ना जाऊं !
इसी लिए -
यात्रा आरंभ नहीं कर पाता
और जहाँ का तहां खड़ा हूँ !
क्या तुम मेरी मदद करोगी ?
निर्भय हठी और
आत्मविश्वासी जल-धारा नें
पल भर कुछ सोचा ,
फिर कहा -चलो मेरे साथ !
कुछ छण पश्चात् -
जल-प्रापात कहीं नहीं था
नन्ही -सी जलधार विस्तृत हो -
"नदी" बन चुकी थी !
अबाध गति से बढ़ रही थी वो
सागर को पानें
बिना ये जानें
की सागर कहाँ है ?
सो कभी भी ,कहीं भी
किसी भी मोड़ पर
मुड़ जाती थी
ये सोच कर की -
शायद सागर यहाँ हो !
हर मोड़ , हर गाम , हर ठौर
उसे मिला-
एक और जल
एक और धारा
एक और झरना
एक और नद
एक और त्वरा
एक और उद्वेग
एक और उफान
सब के सब सागर की खोज में थे
एक-एक कर
सब समाहित होते गए उसमें और
बढ़ता चला गया
नन्ही सी नदी का विस्तार !
बहते-बहते रुक गई है वो,
थम गई है वो !
नहीं ,थकी नहीं है
किन्तु जहाँ पहुँच गई है -
उसके आगे कुछ शेष नहीं !
अपने चारों ओर बह-बह कर
लौटना पड़ता है उसे बार-बार स्वयं में !
बहुत गहरी बहुत विस्तृत,बहुत स्थिर
किन्तु बहत बेचैन है वो !
बार-बार पूछती है --
सागर कहाँ है ?
सागर कहाँ है ?
कहाँ है सागर ?
???
कोई उसे बता क्यों नहीं देता --
वो सागर हो गई है !!
वो सागर हो गई है !!
दीप्ति मिश्र
बस फिर क्या था-
पूर्ण आत्म-विश्वास
और आस्था बटोर
बह चली -
हरहराती,मदमाती
लहराती,बलखाती
अपनी धुन में मस्त !
हरियाली बिखेरती,
प्यासों की प्यास बुझाती
तपतों का ताप मिटाती
बहती जाती निर्बाध गति से
नन्ही सी जलधार
सागर को पानें
बिना ये जाने
की सागर कहाँ है ?
राह में मिला उसे
एक जल-प्रपात
धारा नें पूछा-
क्या तुम सागर हो ?
जल-प्रापात नें कहा-
नहीं मैं सागर नहीं हूँ ,
सागर होना चाहता हूँ !
सुना है --
बहुत दुरूह है सागर होना
भय लगता है मुझे ,
सागर तक पहुँचने से पहले ही
कहीं सूख ना जाऊं !
इसी लिए -
यात्रा आरंभ नहीं कर पाता
और जहाँ का तहां खड़ा हूँ !
क्या तुम मेरी मदद करोगी ?
निर्भय हठी और
आत्मविश्वासी जल-धारा नें
पल भर कुछ सोचा ,
फिर कहा -चलो मेरे साथ !
कुछ छण पश्चात् -
जल-प्रापात कहीं नहीं था
नन्ही -सी जलधार विस्तृत हो -
"नदी" बन चुकी थी !
अबाध गति से बढ़ रही थी वो
सागर को पानें
बिना ये जानें
की सागर कहाँ है ?
सो कभी भी ,कहीं भी
किसी भी मोड़ पर
मुड़ जाती थी
ये सोच कर की -
शायद सागर यहाँ हो !
हर मोड़ , हर गाम , हर ठौर
उसे मिला-
एक और जल
एक और धारा
एक और झरना
एक और नद
एक और त्वरा
एक और उद्वेग
एक और उफान
सब के सब सागर की खोज में थे
एक-एक कर
सब समाहित होते गए उसमें और
बढ़ता चला गया
नन्ही सी नदी का विस्तार !
बहते-बहते रुक गई है वो,
थम गई है वो !
नहीं ,थकी नहीं है
किन्तु जहाँ पहुँच गई है -
उसके आगे कुछ शेष नहीं !
अपने चारों ओर बह-बह कर
लौटना पड़ता है उसे बार-बार स्वयं में !
बहुत गहरी बहुत विस्तृत,बहुत स्थिर
किन्तु बहत बेचैन है वो !
बार-बार पूछती है --
सागर कहाँ है ?
सागर कहाँ है ?
कहाँ है सागर ?
???
कोई उसे बता क्यों नहीं देता --
वो सागर हो गई है !!
वो सागर हो गई है !!
दीप्ति मिश्र
Sunday, 20 June 2010
भगवान और इन्सान
पता नहीं-
तुमनें उसे बनाया है
उसने तुम्हें !
किन्तु तुम दोनों ही
एक जैसा खेल खेलते हो
एक दूसरे के साथ !
थोड़ी-सी मिट्टी
थोडा- सा पानी
थोड़ी-सी हवा
थोड़ी-सी आग
और
थोडा-सा आकाश ले
गढ़ते हो तुम
गढ़ते हो तुम
एक खिलौना !
कठपुतली-सा उसे नाचते हो,
अपना मन बहलाते हो,
और जब उकता जाते हो
तब-
मिट्टी को मिट्टी
पानी को पानी
हवा को हवा
आग को आग
और
आकाश को आकाश में
विलीन कर
समाप्त कर देते हो
अपना खेल !!!
ठीक ऐसा ही खेल
वो भी ही खेलता है
तुम्हारे साथ !!
बड़े ही जतन से -
कभी दुर्गा,तो कभी गणपति के रूप में
साकार करता है वो तुम्हें !
फिर होती है -
तुम्हारी " प्राण-प्रतिष्ठा " !!
जब तुम प्रतिष्ठित हो जाते हो ,
तब --
पूजा-अर्चन ,आरती-स्तुति
फल-फूल ,मेवा-मिष्ठान
रोली- अक्षत ,नारियल-सुपारी
दीप-धूप,घंटा-घड़ियाल
के अम्बार लग जाते हैं !
खूब शगल रहता है कुछ दिन तक !!
फिर--
एक निश्चित अवधि के पश्चात
एक निश्चित अवधि के पश्चात
तुम्हारे भक्त
झूमते-नाचते
गाते-बजाते
विसर्जित कर देते हैं
तुम्हें जल में
और साथ ही
विसर्जित हो जाती है
उनकी--
सारी आस्था
सारी श्रद्धा
और सारी भक्ति !!!
सागर किनारे ,नदिया तीरे
बिखरे तुम्हारे छिन्न-भिन्न अंग
साक्षी हैं इस बात के ,कि --
देंह धारण कर ,
तुम भी टूटते हो
तुम भी बिखरते हो
तुम्हारी भी मृत्यु होती है !!!
किन्तु --
तुम-दोनों के खेल में
एक अंतर है -
तुम्हारे द्वारा बनाया गया इन्सान
जीवन में सिर्फ़ एक बार
मृत्यु को प्राप्त होता है
किन्तु
इन्सान द्वारा बनाए गए भगवान
तुम्हारी मृत्यु --
अनंत है ...! अनंत ...!!!
दीप्ति मिश्र
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