Monday 25 May 2015

तथास्तु

तथास्तु

एक थी -
प्रकृति की अद्वितीय देन.
रूप-लावण्य,कला-प्रज्ञा का अद्भुत समन्वय .
जीवन के सत्य को जानती थी वह.
जीवन-गति को पहचानती थी वह.
हर-हरा कर बह जाना चाहती वह
किसी पार्वती सरिता सी,
इस छोर से उस छोर तक.

औरचाहती थी -
निर्बाध,निःशंक, निःसीम निर्वाण.
भय उसकी प्रकृति में नहीं था ,
और हारना उसने सीखा न था.
महत्व्काक्षां और सामर्थ्य
दोनों ही पाए थे उसने.
अदम्य साहस की एकक्षत्र साम्राज्ञी थी वह.
सकारात्मक क्रियात्मकता का
अतुलनीय,अपरिमित प्रतिफलन,

एक पाषण-शिला को देख -
उद्वेलित हुआ भावुक ह्रदय ,
कल्पना ने स्वप्निल पंख पसारे,
करवट ली विचार-श्रंखला ने.
प्रेरित हो छेनी-हथौड़ी ले -
लगी तराशने हौले-हौले
कठोर पाषण-शिला को
वह कृत संकल्प नारी.

दिन् बीते, रातें बीतीं ..
अनवरत ,सतत, प्रयत्नशील
डूबी रही वह अपनी धुन में .
अथक परिश्रम रंग लाया
कल्पना का साकार रूप सामने आया.
अब बन गया था वह पाषण -
एक पुरुष ..
एक परिपुष्ट पुरुष !

विस्तृत ललाट पर,
खिंची हुई प्रत्यंचा -सी सघन भ्रू-रेख'
शांत,स्निग्ध,स्थिर,नेत्र,
सूती हुई नासिका पर उभरे सुद्र्ण नासापुट,
पीन,पुष्ट,वर्तुलाकार,अधरोष्ठ ,
तानी हुई ग्रीवा पर नुकीली चिबुक,
विशाल वक्षस्थल पर उभरी मांसल मस्पेशियाँ,
कठोर भुजमूलों पर दमकती स्फीत शिराएँ.
अंग-अंग से फूटा था पौरुष.
प्रतिमा नहीं, वह थी पुरुषत्व की पराकाष्ठ!
मुग्ध थी वह स्वयं अपने सर्जन,
अपनी रचना-शक्ति पर.
निर्निमेष निहारती थी वह -
चकित,अभिभूत-सी !

किन्तु फिर भी -
कुछ कमी तो रह गई थी
शेष है अब भी कहीं कुछ ...
मन ही मन वह कह रही थी-
किस लिए है मूक-स्थिर ये पुरुष?
क्यूँ नहीं स्पंद इं स्फीत शिराओं में?
क्यूँ नहीं फड़कन हुई स्फीत शिराओं में?
क्यूँ नहीं है रक्त का संचार ?
क्यूँ नहीं इसमें कोई उन्माद?
रह गई कृति क्या अधूरी आज भी?
होगी पूरी कभी न एक साध भी?
हार कर थक बैठना जाना न उसने
है असम्भव कुछ यहाँ मन न उसने .

वहीँ समाधिस्त हुई वह जीवट नारी
एकमात्र आत्मविश्वास के साथ.
समय बीतता गया ...
फिर सहसा ...
थम गया काल-चक्र!
थर्रा उठा प्रजापति का सिंघासन-
कौन? कौन है ?
कौन करना चाहता है यह अतिक्रमण ?
किसका साहस हाजीओ गया इतना विलक्षण?
तोड़ दे संकल्प अपना
छोड़ दे ये हट,
तोड़ दे अपनी प्रतिज्ञा
त्याग दे यह प्रण.
किन्तु
वह हठी नारी न मानी,
न थकी और न ही हारी,
बस एक ही रट ,
एक इच्छा,
एक ही थी चाह,
कुछ भी हो पाकर रहेगी
अंतिम सत्य की थाह .

'तथास्तु'

किन्तु -
एक शर्त मेरी भी सुन ओ हठी संतान,
कान में कुछ कह, प्रजापति  हुए अंतर्ध्यान.

आज प्रसन्नता का परवर न था,
आज अधूरा कोई भी उदगार न था.
भव-विभोर हो ,धीरे से -
स्पर्श किया उसने
निज कल्पना का साकार मस्तक !

स्थिर पुतलियाँ धीरे से हिलीं,
पलकें झपकीं,
नस-नस में दौड़ गया रक्त का संचार,
फड़क उठीं मांसल मांसपेशियां,
तड़क उठीं दप-दप कर धमनियां,
स्पंदित हुई समूची कि समूची देंहराशि !

देख रही थी वह -
स्वनिर्मित मनुज को
हतप्रभ - सी...
कि
थरथराए प्रतिमा के अधर ,
एक अस्पष्ट शब्द फूटा -
तु...म..!
फिर स्पष्ट
तुम !
अक बार ,दो बार ,बार-बार....
गूँज उठा सकल आकाश ,
'तुम' के अनहद नाद से!
पाषण - कब से प्रतीक्षारत था मैं
हर पल, हर क्षण,
कट-कट कर
बिखर-बिखर कर
अनुभूत किया है मैनें बस -
'तुम्हे'!
मेरा एकमात्र अनुभूत सत्य हो -
'तुम'!
नारी-
 नहीं-नहीं तुम तो पाषण थे ,
स्पन्दन्हीन , भाव-शून्य पाषण .
ये विचार,ये संवेदना तुममें कहाँ ?
पाषण-
भूल गईं तुम ?
सर्वप्रथम संवेदना का जल छिड़क ,
कोमल उँगलियों से सोह्लाया था तुमने,.
मुझ पाषण को माँ सा गलाया था तूने .
भीतर ही भीतर पिघल कर बह गया था मैं .
तुम्हारी कल्पना में
 पल-पल ढलता रहा हूँ मैं .
स्वयं को सौंप तुम्हारे हाथों में ,
टूटता-बनता रहा हूँ मैं .
तुम्हारा एक-एक स्पर्श ,
मेरी देह में उभर बन अंकित है.
तुम्हारा प्रत्येक श्रम-सीकर ,
मुझमें स्निग्धता बन संचित है.
तुम्हारी देह की सुगंध,
मेरे रोम-रोम में समाई है.
तुम्हारा अस्तित्व ही मेरे स्व की
एक  मात्र सच्चाई है.
कितनी ही बार क्लांत हो
मेरी छाया में विश्राम किया तुमने.
कितनी ही बार तुम्हारी ऊष्ण-शीत निःश्वास
इस वज्र स्थल से टकरा कर लौट गई.
किन्तु मैं ?
मैं मूक-स्थिर,विवश-कातर
सदा ही रहा अव्यक्त !!
आज....
आज मिली मुझको अभिव्यक्ति
स्वीकारो मेरी अनुरक्ति!
तुम ही तुम सदा समाई  मुझमें,
चाहता हूँ मैं समाना आज तुममें !!

चुम्बकीय आकर्षण से
खिचती जाती वह गर्विता,
अपने ही वाणों से
बींधती जाती वह गर्विता ,
बलिष्ट भुजाओं ने थाम ली थी
जीर्ण-पत्र सी थरथराती काया
नहीं-नहीं कहती
समर्पित होती जाती ..
कैसा इंद्रजाल था ?
कैसी थी माया ?
राशि-राशी बिखर जाना चाहती थी वह
माँ बन कर पिघल जाना चाहती थी वह
कैसा मोहक था उन्माद ?
कैसा अद्भुत था प्रमाद ?
सहसा ..
कुछ याद कर चिटक गई वह
नहीं-नहीं
प्रजापति को यह स्वीकार नहीं
ईश्वर ने दिया हमको ये अधकार नहीं
नहीं-नहीं !!

पाषण-
कौन प्रजापति ?
कैसा ईश्वर ?
मेरी नियामक तुम !
मेरी नियंता तुम!
मेरी रचयिता तुम!
मेरी स्रष्टा तुम!
मेरी श्रध्दा तुम!
मेरी पूजा तुम!
स्वीकार लो मेरा समर्पण
प्रेम का अनुदान दो
चिर प्रतीक्षित हूँ तुम्हारा
अब मिलन का मान दो
बहने दो ...
मुझको बहने दो
संयम की दीवार प्रिये
ढहने दो...
अबतो ढहने दो
प्यासा हूँ
कबसे प्यासा हूँ
यौवन का मधुरस पीने दो

अपनी कृति से हारी नारी
अपनी कृति पे वारी नारी
मौन हुई वह कुछ न बोली
मूंदी आँखें फिर न खोलीं
शिथिल हो गए अंग सभी
बाकी न रहा कोई प्रतिरोध
टूटे बंधन ,टूटा संयम
वह झुकता जाता निर्विरोध
मिल गए अधर-अधरों से
सिल गए अधर-अधरों से
एक सिसकी ! एक हिचकी !

शांत, स्तब्ध,नीरव सन्नाटा
तड़क से कौंधी आकाश में तड़ित
प्रजापति मुस्कुराए
हतभागा...
बलिष्ट भुजाओं में
थामे खड़ा था
एक पाषण प्रतिमा !!

दीप्ति मिश्र
23.2.95 - 27.2.95






















.



Wednesday 20 May 2015

कबाड़

कबाड़ 

सुनो,
वो घर के पीछे वाले अन्धेरे बन्द कमरे में,
जो कबाड़ पड़ा था न !
जिसपे थोड़ी-थोड़ी जंक भी लग गई थी .
जो तुम्हारे किसी काम का नहीं था .
जिससे न तुम्हें जुड़ाव था न लगाव .
बेकार ही पड़ा-पड़ा धूल खा रहा था
आज उठा कर
बिना किसी मोल भाव के
उसे दे दिया जिसके लिए
वो कबाड़ अमृत समान था !!
ठीक किया न मैनें ?
बोलो, सही किया न ?
अब इतना अधिकार बनता है
तुम्हारी पत्नी जो हूँ !!!!

दीप्ति मिश्र
20 .5. 2015

Monday 30 March 2015

मैं दिल से मजबूर हूँ



मैं  दिल से मजबूर हूँ अपने  और  वो दुनियादारी से  
दिल - दुनिया से जूझ रहे  हैं  दोनों  बारी - बारी  से 

रिश्तों के इस  खेल में इक दिन दोनों की ही हार  हुई  
वो  अपनी   चालों  से  हारा , मैं अपनी  दिलदारी से  

दिल से बाहर कर के मुझको अच्छा सा घर सौंप दिया  
उसने  अपना   फ़र्ज़   निभाया  कितनी  ज़िम्मेदारी  से  

मेरा  उसका  रिश्ता  जैसे   ताला  किसी  ख़ज़ाने  का
जिसको  देखो  काट  रहा  है  अपनी-अपनी  आरी से  

चपके -  चुपके  उसने  मेरे   सारे   रिश्ते  बेच   दिए  
जैसे  उसका  रिश्ता  हो  कुछ रिश्तों के  व्यापारी से 

चोरी - चोरी  चुपके - चुपके   सारे   रिश्ते  बेच  दिए  
ख़ूब  कमाई  की  है उसने  ख़ालिस चोर  बाज़ारी  से

दीप्ति मिश्र
20.12.2014





Friday 2 May 2014

मैं और मेरा भगवान्

मैं और मेरा भगवान्

मेरे छोटे-से घर के
छोटे-से कमरे की
छोटी-सी अलमारी के
छोटे-से ख़ाने में
शिव जी की एक नन्ही-सी बटियाहै .
जिसके सामने रक्खे हैं-
एक छोटा-सा अगरबती स्टैंड और
रामचरित-मानसकी एक प्रतिलिपि
बस.
मेरे घर में भगवान के लिए मात्र इतनी ही जगह है.
क्यों कि मैं एक बड़े शहर में रहती हूँ जहाँ
घर छोटे,आदमी छोटे और दिल छोटे होते हैं.
मैं अपने भगवान पर गंगाजल नहीं चढ़ाती
इस लिए नहीं कि है नहीं
वरन इस लिए कि
मुझे उसकी शुद्धता पर विश्वास नहीं रहा.
मैं अपने भगवान् पर फूल भी नहीं चढ़ाती
क्योंकि -
अपने हाथों से लगाए पौधों के फूल तोड़ने में
मुझे दर्द होता है और
दूसरों से माँगने की मेरी आदत नहीं .
मैं अपने भगवान् को
न चन्दन लगाती हूँ, न रोली, न अक्षत .
रोली,चन्दन अक्षत तो है
किन्तु समय नहीं है.
मगर फिर भी
मेरा भगवान् मुझसे रुष्ट नहीं होता
क्योंकि वो भगवान् है.
मैं नित्य प्रातः
स्नान करके भगवान् के आगे अगरबत्ती जलाती हूँ
मूक स्वर में मानस का पाठ करती हूँ
और
आँख मूँद कर उससे वो सब कह जाती हूँ
जिसे स्वप्न में भी किसी से कहने से डरती हूँ
फिर चिंतामुक्त हो जाती हूँ !
कभी-कभी ऐसा भी होता है
मैं अपने भगवान् से रूठ जाती हूँ,
महीनों पूजन नहीं करती.
मेरे भगवान् पर धूल की परतें जम जाती हैं
लेकिन तब भी,
मेरा भगवान् मुझसे रुष्ट नहीं होता
क्योंकि वो भगवान् है

फिर
जब कभी मेरे दुखों की गगरी भर जाती है
तब मुझे अपने भगवान् की याद आती है
मैं रोती हूँ, गिडगिडाती हूँ
जो रूठा ही नहीं,
ऐसे भगवान् को मानती हूँ .
बस यूँ ही क्रम चलता रहता है
मेरा -

और मेरे भगवान् का .....!!

दीप्ति मिश्र 
21.3.86

यात्रा

यात्रा

एक था परमात्मा
एक थी आत्मा
और एक था शरीर.
आत्मा ने परमात्मा से पूछा
मैं कौन हूँ ?
उत्तर मिला
एक अप्रत्यक्ष, अनश्वर, अपूर्ण सत्य.
पूर्ण कब होऊँगी ?
जब मुझमें विलीन हो जोगी.
विलीन कब होऊँगी ?
जब यात्रा समाप्त हो जाएगी.

शरीर ने पूछा
मैं कौन हूँ ?
उत्तर मिला
एक प्रत्यक्ष, नश्वर, अपूर्ण सत्य.
पूर्ण कब होऊँगा ?
जब विदेह हो जाओगे.
विदेह कब होऊँगा ?
जब यात्रा समाप्त हो जाएगी .

शरीर और आत्मा ने एकसाथ पूछा-
यात्रा कब समाप्त होगी ?
उत्तर मिला
जब तुम दोनों एक-दूसरे का उद्धार करोगे.

एक ओर था
निष्प्राण, निर्विकार, नश्वर, अपूर्ण सत्य.
दूसरी ओर थी
निराकार, निरालम्ब, शाश्वत, अपूर्ण आत्मा.
दोनों ही पूर्ण होना चाहते थे.
आत्मा ने शरीर
और शरीर ने आत्मा को
स्वीकार लिया.
शरीर को प्राण
आत्मा को आकार
अभिव्यक्त हुए दोनों एक साथ.
अद्भुत, अतुलनीय था ये महामिलन !

आरम्भ हो गई यात्रा और
विकसित होने लगीं दोनों की वृत्तियाँ
एक उत्तर तो दूसरा दक्षिण
एक पूरब तो दूसरा पश्चिम
आत्मा शांत तो शरीर उद्विग्न
शरीर की अपनी आवश्यकता
आत्मा की अपनी माँग
शरीर की अपनी विवशता
आत्मा की अपनी दृढ़ता
नतीजा सामने था
टकराव-बिखराव-टूटन-द्वन्द.
धीरे-धीरे बलवान होता गया शरीर
और क्षीण होता गई आत्मा.
आत्मा ने बहुत सर पटका
लाख अनुनय-विनय की
किन्तु -                                                           
भोग-विलास,काम-वासना में लिप्त                                    
बलशाली शरीर ने एक न सुनी.
बहुत छटपटाई बहुत कसमसाई आत्मा
किन्तु दम नहीं तोड़ सकी
अनश्वर जो थी !
अब कोई विकल्प शेष न था
चुप-चाप निर्मोही बन
त्याग दिया आत्मा ने शरीर !
क्षण भर में
समाप्त हो गया सारा खेल !!
धराशाही पड़ा था बलशाली शरीर
निर्जीव-निर्विकार !

आत्मा ने परमात्मा से कहा
मेरी यात्रा समाप्त हुई ;
अब समाहित करो मुझे अपने आप में .
परमात्मा ने कहा
अभी कहाँ समाप्त हुई तुम्हारी यात्रा ?
तुमने तो यात्रा अधूरी ही छोड़ दी .
शरीर का उद्धार नहीं तिरस्कार किया है तुमने.
शरीर तो निर्विकार था
तुमने उसमें प्रवेश कर
विकार युक्त किया उसे
विकार का कारण तो स्वयं तुम हो
फिर शरीर का तिरस्कार क्यों ?
शरीर में रह कर ही
तुम्हें उसे निर्विकार बनाना था
यही तुम्हारी परीक्षा थी
और यही शरीर की .
तुम दोनों ही हार गए .
पूर्णत्व प्राप्त करने के लिए तुम्हें
फिर से धारण करना होगा
एक नया शरीर
और आरम्भ करनी होगी
एक नईं यात्रा .

तब से आज तक
जाने कितने शरीर धारण कर चुकी है आत्मा
निरन्तर,  अनवरत, सतत यात्रा किये जा रही है.
इस आस और विश्वास के साथ
एक न एक दिन वह
अपने शरीर को निर्विकार बना लेगी .

उधर
ऊपर बैठा परमात्मा
रहस्यमय ढ़ंग से मुस्कुरा रहा है
क्योंकि
उसने आज तक
एक भी शरीर ऐसा नहीं बनाया
जो आत्मा के होते हुए
निर्विकार हो !!

दीप्ति मिश्र
2.5 2002



Thursday 1 May 2014

प्यास

प्यास


सच है
प्यासी हूँ मैं
बेहद प्यासी
मगर तुमसे किसने कहा, कि
तुम मेरी प्यास बुझाओ ?
मुझसे कहीं ज़्यादा रीते,
कहीं ज़्यादा ख़ाली हो तुम .
और...
तुम्हें अहसास तक नहीं
कि -  
भरना चाहते हो तुम अपना खालीपन
मेरी प्यास बुझाने के नाम पर .
ताज्जुब है !
मुक्कमल बनाना चाहता है मुझे
एक-

आधा-अधूरा इन्सान !! 

दीप्ति मिश्र 
17.2.2004

गन्तव्य

गन्तव्य



शांत, शीत, श्वेत, सघन
शिखर पर स्थित थी वह .
निर्विकार ! निर्विचार !
जाने किसने उसे बता दिया
तुम्हारे जीवन का सार है – “सागर

शांत चित्त उद्वेलित हुआ
विचार और विकार की ऊष्मा पा
पिघलने लगी बर्फ़ की चट्टान.
जन्मी एक आस
उपजा एक विश्वास
ज्ञात हुआ एक लक्ष्य
सागर ! सागर ! सागर !
उसे सागर तक जाना था
सागर को पाना था
सागर हो जाना था .

बहुत रोका गया, टोका गया
बताया गया उसे कि
शिखर से धरा और
धरा से अतल गहराइयों तक
झुकते चले जाने की यात्रा
बहुत जटिल, बहुत दुरूह
और बहुत पीड़ादायक है.
किन्तु उसे तो
लौ लगी थी अपने सागरकी 
उसका लक्ष्य था सागर
उसका गन्तव्य था सागर
उसका सत्य था सागर
उसका सर्वस्व था सागर.

बस फिर क्या था
शक्ति, विश्वास और आस्था बटोर 
बह चली वह
हरहराती, मदमाती
लहराती, बलखाती
हरयाली बिखेरती,
प्यासों की प्यास बुझाती,
तप्तों का ताप मिटाती
बहती जाती निर्बाध गति से
नन्ही सी जालधार
सागर को पाने
बिना ये जाने
कि सागर कहाँ है ?

राह में मिला उसे जल-प्रपात
धारा ने पूछा
क्या तुम सागर हो ?
उत्तर मिला
नहीं मैं सागर नहीं हूँ ,
सागर होना चाहता हूँ .
सुना है बहुत दुरूह है सागर होना
भय लगता है मुझे
कि सागर तक पहुँचने से पहले ही
कहीं मैं सूख न जाऊँ.
इसी लिए यात्रा आरम्भ नहीं कर पाता
और जहाँ का तहाँ खड़ा हूँ.
क्या तुम मेरी मदद करोगी ?
निर्भय, निर्भीक और हठी जलधार ने
पल भर कुछ सोचा फिर कहा
चलो मेरे साथ .
कुछ क्षण पश्चात्
जल-प्रपात कहीं नहीं था
नन्ही सी जलधार विस्तृत हो
नदीबन चुकी थी !
अबाध गति से बढ़ रही थी वह
सागर को पाने
बिना ये जाने
कि सागर कहाँ है ?

कभी भी, कहीं भी, किसी भी
मोड़ पर मुड़ जाती थी वह
यह सोच कर कि
शायद सागर यहाँ हो !
हर मोड़, हर गाम, हर ठौर
उसे मिला
एक और जल
एक और धारा
एक और झरना
एक और नद
एक और त्वरा
एक और उद्वेग
एक और उफान
सब के सब सागर की खोज में थे .
एक-एक कर
समाहित होते गए सब उसमें
और बढ़ता चला गया
नन्ही सी नदी का विस्तार !

बहते-बहते रुक गई है वह,
थम गई है वह ,
नहीं थकी नहीं है वह
किन्तु जहाँ पहुँच गई है
उके आगे कुछ शेष नहीं है.
अपने चारों ओर बह-बह कर
लौटना पड़ता है उसे
बार-बार स्वयं में !
बहत गहरी, बहुत विस्तृत, बहुत स्थिर
कितु बहुत बेचैन है वह
बार-बार पूछती है
सागर कहाँ है ?
सागर कहाँ है
कहाँ है सागर ?
कोई उसे बता क्यों नहीं देता
वह सागर हो गई है
वह सागर हो गई है !!

दीप्ति मिश्र 
15.4.2002