Wednesday 21 August 2013
Monday 15 April 2013
Friday 12 April 2013
आखिर मेरी वफ़ाओं का
आखि़र मेरी वफ़ाओं का कुछ तो सिला मिला
उसको भी आज दोस्त कोई बेवफ़ा मिला
कहते थे लोग हमसे ये दुनिया फ़रेब है
हमको तो रास्ते में ही इक रहनुमा मिला
दो पल के तेरे साथ ने क्या कुछ नहीं दिया
बस ये समझ कि तुझ में ही
सब कुछ छिपा मिला
मेरा नहीं था तू मुझे मिलना तुझी से था
लुक-छुप के खेल में मेरी
कि़स्मत को क्या मिला
बढ़कर खु़दा से क्यों न मैं पूजूँ तुझे बता
जब उसकी जगह तू मुझे बन कर खु़दा मिला
दीप्ति मिश्र
8.2.95 -14.3.95
दीप्ति मिश्र
8.2.95 -14.3.95
दिल की धडकन
ग़ज़ल
दिल की धड़कन की सुनी
आवाज़ तुमने कब कहो
जान कर बनते रहे अनजान क्यों तुम अब कहो
लफ़्ज़ मेरा एक भी तुम तक पहुँच पाया नहीं
चुप से मेरी हो गए बेचैन
क्यों तुम अब कहो
तुमसे हमने सीख ली है
कुछ न कहने की अदा
कह सके ना तुम कभी जो,
आज तुम वो सब कहो
आज़मा कर क्या करोगे देखना पछताओगे
जाँ हथेली पर लिए हैं
,वार देगें जब कहो
किस लिए झूठी तसल्ली ,किस लिए वादा नया
आ गया हमको यकीं गर क्या करोगे तब कहो
दीप्ति मिश्र
26.4.95 - 1.5.95
दीप्ति मिश्र
26.4.95 - 1.5.95
क्या बतलाएं
ग़ज़ल
क्या बतलाएं किसके दिल
में क्या-क्या राज़ छुपा देखा है
हर इन्सां के दिल में हमनें इक तूफ़ान रुका देखा है
तूफ़ां से जो जा टकराया
,मात कभी ना खाई जिसने
वक्त़ के आगे उसका सर भी
हमनें आज झुका देखा है
मुट्ठी से रेती सा सरका हर पल जो था साथ गुज़ारा
जबसे बिछड़े वक्त़ वहीं
पर सुबहो-शाम रुका देखा है
भूला भटका सा दीवाना लोग जिसे पागल कहते थे
बस उसके ही दिल में
हमनें इक मासूम छुपा देखा है
कैसा सीधा-साधा था वो
,बच्चों सा भोला दिखता था
वक्त़ के हाथो टूटा होगा
,उसके हाथ छुरा देखा है
दीप्ति मिश्र
12.4.95 - 28.4.95
दीप्ति मिश्र
12.4.95 - 28.4.95
Thursday 11 April 2013
उम्र का हर साल
ग़ज़ल
उम्र का हर साल बस आता रहा जाता रहा
ये हमारे बीच में अब कौन सा नाता रहा
एक मूरत टूट कर बिखरी
मेरे चारों तरफ़
कैसी पूजा, क्या
इबादत,सब भरम जाता रहा
जल रहा था एक दीपक रौशनी
के वास्ते
उसके तल पर ही मगर अँधियार
गहराता रहा
हम बने सीढ़ी मगर हर बार पीछे ही रहे
रख के हम पे पाँव वो ऊचाइयाँ पाता रहा
उम्र के उस मोड़ पर हमको मिलीं आज़ादियाँ
कट चुके थे पंख जब उड़ने का फ़न जाता रहा
ज़िन्दगी की वेदना गीतों में मैनें ढ़ाल दी
गीत मेरे गै़र की धुन में ही वो गाता रहा
दीप्ति मिश्र
20.4.95
दीप्ति मिश्र
20.4.95
अपने काँधे पर
ग़ज़ल
अपने काधें पर सर रख कर
खुद ही थपकी दे लेते हैं
याद हमें अब कौन करेगा खुद ही हिचकी ले लेते हैं
मझधारों में नाव चलाना कोई मुश्किल काम नहीं है
सूखी रेती में भी अब तो
अपनी नईय्या खे लेते हैं
देखें घाव भरें हैं कितने जब भी मन में ये आता
है
नाम तभी तेरा मन ही मन
चुपके से हम ले लेते हैं
ख़ैर-ख़बर मेरी तुम लोगे
अब तो ये भी आस नहीं है
खु़द को चिट्ठी लिख कर
अब तो खु़द ही उत्तर दे लेते हैं
अच्छा है जो खुल ही गयी
ये मुट्ठी जो थी बन्द अभी तक
खा़ली हाथ हवा में उठ कर
आज दुआएँ दे लेते हैं
इस छोटी सी दुनिया में
तुम शायद फिर से मिल जाओगे
सोच के कुछ ऐसी ही बातें दिल को तसल्ली दे लेते हैं
दीप्ति मिश्र
4.5.95 - 2.6.95
दीप्ति मिश्र
4.5.95 - 2.6.95
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