Monday 28 May 2012

कहॉं दर्द है कुछ ख़बर

 

कहाँ  दर्द   है  कुछ  ख़बर  ही   नहीं   है 
कि  अब  दर्द का कुछ असर  ही  नहीं है

मेरे   घर  में   मेरी  बसर  ही   नहीं   है 
जिसे   घर  कहूँ  ये  वो  घर  ही  नहीं है

मैं किस आस्ताँ पर करूँ  जा के सजदा 
झुके  जिसपे  सर  ऐसा  दर  ही नहीं है 

भरोसा   है उसके  ही  वादे  पे  मुझको 
मुकरने   में  जिसके कसर ही  नहीं है 

ये  किस मोड़ पर आ गई ज़िन्दगानी
कहानी   में  ज़ेरो -ज़बर  ही   नहीं   है 

दीप्ति मिश्र 

Thursday 17 May 2012

अपूर्ण


अपूर्ण 


हे सर्वज्ञाता ,सर्वव्यापी ,सार्वभौम !
क्या सच में तुम सम्पूर्ण हो ?
"हाँ "कहते हो तो सुनों -

सकल ब्रम्हांड में 
यदि कोई सर्वाधिक अपूर्ण है 
तो वो "तुम" हो !!
होकर भी नहीं हो तुम !!!
बहुत कुछ शेष है अभी ,
बहुत कुछ है जो घटित होना है !
उसके बाद ही तुम्हें सम्पूर्ण होना है!

हे परमात्मा !
मुझ आत्मा को 
विलीन होना है अभी तुममें!
मेरा स्थान रिक्त है अभी तुम्हारे भीतर 
फिर तुम सम्पूर्ण कैसे हुए ?

तुममें समाकर "मैं"
शायद पूर्ण हो जाऊं !
किन्तु "तुम" ?
"तुम" तो तब भी अपूर्ण ही रहोगे 
क्योंकि -
मुझ जैसी -
जानें कितनी आत्माओं की रिक्तता से 
भरे हुए हो "तुम" !

जाने कब पूर्ण रूप से भरेगा 
तुम्हारा ये रीतापन -
ये खालीपन !!
जाने कब ?
जाने कब ?

दीप्ती मिश्र  

Tuesday 15 May 2012

लम्स


अजीब रिश्ता है 
उसके और मेरे बीच !
मेरे लिए वो -
एक महकता हुआ हवा का झोंका है !
और 
उसके लिए मैं-
एक खूबसूरत वुजूद !

वो जब चाहे आता है 
और समेट लेता है-
मेरा पूरा का पूरा वुजूद अपने में...!

जिस्म से लेकर रूह तक 
महक उठती हूँ मैं !
महसूस करती हूँ रग-रग में 
उसकी एक-एक छुअन !
थाम लेना चाहती हूँ उसे 
हमेशा-हमेशा के लिए !
लेकिन 
ऐसा नहीं होता ,कभी नहीं होता !
चला जाता है वो ,जब जाना होता है उसे !
फिर भी 
मुझे उसी का इंतज़ार रहता है !
सिर्फ़ उसका इतजार !!

वो अपनी मर्ज़ी का मालिक है 
और 
मैं अपनें मन की गुलाम !!
उसके हिस्से में- 
"आती हूँ पूरी की पूरी मैं" 
और 
मेरे हिस्से में आता है -
"चंद लम्हों के लम्स का अहसास" !!!
  

दीप्ती मिश्र  

Monday 14 May 2012

प्यास


सच है - प्यासी हूँ मैं
बेहद प्यासी !
मगर 
तुमसे किसनें कहा -
कि तुम मेरी प्यास बुझाओ ?

मझसे कही ज़्यादा रीते ,
कहीं ज़्यादा खाली हो तुम !
और तुम्हे अहसास तक नहीं !!

भरना चाहते हो तुम -
अपना खालीपन 
मेरी प्यास बुझानें के नाम पर !!

ताज्जुब है !
मुकम्मल बनाना चाहता है मुझे 
एक -
"आधा-अधूरा इंसान "!!

दीप्ती मिश्र

Friday 11 May 2012

रिश्ता

                                                                                  

एक थी सत्री 
और
 एक था पुरुष 
दोनों में कोई रिश्ता न था .
फिर भी दोनों एक साथ रहते थे .
बेइंतिहा प्यार करते थे एक-दूसरे  को ,
तन-मन-धन से !

दोनों में नहीं निभी ,
अलग हो गए दोनों !

किसी नें सत्री से पुछा -
वो पुरुष तुम्हारा कों था ?
सत्री नें कहा -
प्रेमी जो पति नहीं बन सका !

किसी ने पुरुष से पूछा -
वो सत्री तुम्हारी कों थी ?
उत्तर मिला -
"रखैल"!!!

दीप्ती मिश्र

Wednesday 15 February 2012

विचित्र

 

बहुत विचित्र थी वो -
बिल्कुल जल में कमल  की तरह ...
जल ,जो उसका जीवन था 
 कभी सिक्त नहीं कर सका उसे !
जल-कण कुछ पल को 
पंखुरियों पर ठहरते -
फिर ढलक जाते !!

बहत विचित्र थी वो -
बिलकुल उस बंजारन की तरह ...
जिसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं !
एक पल यहाँ ,दूसरे पल वहाँ ...
तो तीसरे पल ... जानें कहाँ !!

बहुत विचित्र थी वो 
बिलकुल उस पंछी की तरह ...
जिसकी उड़ान के लिए -
आकाश छोटा था !
वो उड़ान भारती गई ....
 घोसला छूटता गया !!

बहुत विचित्र थी वो -
न आसक्त ,न विरक्त !
न तृप्त ,न अतृप्त !
न बंदी ,न मुक्त  !

जाने क्या खोजती थी वो ?
जाने क्या था ...
जो नहीं था ??

किसी ज्ञानी नें उससे पूछा  -
क्यों भटकती हो ?
उसनें कहा --पता नहीं !
ज्ञानी--अज्ञानी हो तुम .
वो -- हो सकता है !
ज्ञानी -- क्या चाहती हो ?
वो -- यही तो जानना हैं !
ज्ञानी -- मेरी शरण में आजाओ 
सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँगे .
वो -- लेकिन प्रश्न तो -
आप मुझसे पूछ रहे हैं !
मैंने  तो कोई प्रश्न पूछा ही नहीं !!
ज्ञानी -- पूछोगी 
पहले मुझे अपना गुरू बनाओ .
वो-- ठीक है 
किन्तु एक समस्या है !
ज्ञानी -- क्या ?
वो - आपको "गुरू" बनाने के लिए 
मुझे "लघु" बनना पड़ेगा !  

ज्ञानी निरुत्तर था 
और 
वो निश्चिन्त !!!!!!!

दीप्ती मिश्र


Tuesday 8 November 2011

मैंने अपना हक माँगा था

  

मैंने अपना   हक  माँगा था ,वो  नाहक ही  रूठ गया 
बस  इतनी-सी बात  हुई और साथ हमारा  छूट गया 

वो मेरा है आखिर  इक दिन मुझको मिल ही जाएगा 
मेरे  मन  का एक भरम था ,कब तक रहता टूट गया 

दुनिया भर की शान-ओ-शौकत ज्यूँ की त्यूं ही धरी रही
मेरे  बैरागी  मन   में  जब  सच  आया ,सब   झूठ  गया

क्या  जाने  ये आँख  खुली  या फिर  से कोई भरम 
हुआ
अबके  ऐसा  उचटा  ये दिल , कुछ  छोड़ा,कुछ छूट गया

लड़ते - लड़ते  आखिर इक दिन पंछी  ही  की जीत हुई 
प्राण-पखेरू  नें  तन  छोड़ा , खाली  पिंजरा   छूट  गया 

दीप्ती मिश्र