बहुत विचित्र थी वो -
बिल्कुल जल में कमल की तरह ...
जल ,जो उसका जीवन था
कभी सिक्त नहीं कर सका उसे !
जल-कण कुछ पल को
पंखुरियों पर ठहरते -
फिर ढलक जाते !!
बहत विचित्र थी वो -
बिलकुल उस बंजारन की तरह ...
जिसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं !
एक पल यहाँ ,दूसरे पल वहाँ ...
तो तीसरे पल ... जानें कहाँ !!
बहुत विचित्र थी वो
बिलकुल उस पंछी की तरह ...
जिसकी उड़ान के लिए -
आकाश छोटा था !
वो उड़ान भारती गई ....
घोसला छूटता गया !!
बहुत विचित्र थी वो -
न आसक्त ,न विरक्त !
न तृप्त ,न अतृप्त !
न बंदी ,न मुक्त !
जाने क्या खोजती थी वो ?
जाने क्या था ...
जो नहीं था ??
किसी ज्ञानी नें उससे पूछा -
क्यों भटकती हो ?
उसनें कहा --पता नहीं !
ज्ञानी--अज्ञानी हो तुम .
वो -- हो सकता है !
ज्ञानी -- क्या चाहती हो ?
वो -- यही तो जानना हैं !
ज्ञानी -- मेरी शरण में आजाओ
सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँगे .
वो -- लेकिन प्रश्न तो -
आप मुझसे पूछ रहे हैं !
मैंने तो कोई प्रश्न पूछा ही नहीं !!
ज्ञानी -- पूछोगी
पहले मुझे अपना गुरू बनाओ .
वो-- ठीक है
किन्तु एक समस्या है !
ज्ञानी -- क्या ?
वो - आपको "गुरू" बनाने के लिए
मुझे "लघु" बनना पड़ेगा !
ज्ञानी निरुत्तर था
और
वो निश्चिन्त !!!!!!!
दीप्ती मिश्र